जब भी उनपे दांव खेला हम हारकर हर बार निकले,
हमारी तबाही की साजिश में एक दो नहीं हज़ार निकले.
रो भी ना पाये यह जानकर अपनी बे-अख्तरी पे,
फिरते रहे जिनकी तलब में वो अपने ही तलबग़ार निकले.
क्या बयां करे कोई वो मंजर कागज़-ओ-कलम से,
जब बूंद-बूंद रिस कर दिल से करार निकले.
इल्जाम था हम पर सर-ए-आम उनकी इत्लाफ़ियत का,
जब तफ़तीश हुई तो हम उनके ही ग़म-गुसार निकले.
वो जानते हैं जिस गली को दिल-दोजों की हैसियत से,
उन्ही गलियों में से जाने कितने ग़म-ख्वार निकले.
एक लाज़िमी सी हैरानीयत थी उनके चश्म में, जब
कूचे में रह कर भी हम उनके ख्वाबदार निकले.
शुमार हो जायें हम भी वफ़ा के अर्ज़मंदो में,
जो बज़्म-ए-शबा में किश्तों में हर असरार निकले.
एहसानमंद हैं आजकल ख़ुद ही, ख़ुद से, ख़ुद के लिये,
वो अपने वजूद को लेकर कुछ इतने फ़िगार निकले.
क्यों मिले उस कत्ल में किसी कातिल का गिरेबां "साहब",
जब कोई अपने कत्ल का ख़ुद ही गुनहगार निकले.
मौलिक व अप्रकाशित
___"मलेन्द्र कुमार"
Comment
सबसे पहले मैं आपके सुझावों पर देरी से प्रतिक्रिया के लिये माफ़ी की उम्मीद करता हूँ...
आप सभी को मेरे इस छोटे प्रयास पर हौसला अफजाई के लिये दिल से शुक्रिया कहना चाहूँगा.
अनुभवी व आदरणीय शिज्जु शकूर जी, विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी विनय जी, अरुन शर्मा 'अनन्त' जी, Saurabh Pandey जी, के सुझावों व मार्गदर्शन के लिये उनका आभारी रहूँगा. भविष्य में ऐसी त्रुटियाँ न हो इसके प्रयास के साथ ही मैं गजल की कक्षा से इसकी बारीकियों को समझने की कोशिश भी करूँगा.
मेरी रचना को पढने व आपके बहुमूल्य सुझावों के लिये एक बार फिर से आप सभी को धन्यवाद.
इस मेहनत पर हार्दिक शुभकामनाएँ ..
सुझावों पर ध्यान दें. शुभेच्छाएँ.
भाई मलेंद्र जी बह्र में गड़बड़ी है कृपया अवगत करायें तकरीबन चार शेरों में तकाबुले रदीफ़ का दोष है, पढशाला में जा कर ग़ज़ल का अध्ययन करें. सादर
अच्छी ग़ज़ल , हार्दिक बधाई और शुभकामनायें !!
आदरणीय मलेन्द्र भाई,
खूब सूरत गज़ल के लिए हार्दिक बधाइयाँ
भाई मलेन्द्रजी ग़ज़ल की कोशिश अच्छी है, ग़ज़ल के मूलभूत नियमों का सतत अध्ययन एवम अभ्यास प्रयास को सार्थक करेगा।
आदरणीय मलेन्द्र भाई, खूब सूरत गज़ल कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ आदरणीय बह्र लिख दिया करें , हम सीखने वालों को समझने मे आसानी होती है ॥
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