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ग़ज़ल - माँ जो होती है तो घर लगता है ! (अभिनव अरुण)

ग़ज़ल
फाइलातुन फइलातुन फैलुन \ फइलुन
२१२२ ११२२ २२ \ ११२

वर्ना अन्जान शहर लगता है
माँ जो होती है तो घर लगता है |

दौर कैसा है नई नस्लों का,
वक़्त से पहले ही पर लगता है |

है इधर रंग बदलती दुनिया,
मैं चला जाऊं उधर लगता है |

जाने किस दर्द से गुज़रा होगा ,
शेर जज़्बात से तर लगता है |

इस ऊंचाई से न देखो मुझको ,
दूर से सौ भी सिफर लगता है |

इन चटख फूलों में मकरंद नहीं ,
ये दवाओं का असर लगता है |

इन घरोंदों में ये ख़ामोशी क्यों ,
कागज़ी है ये शजर लगता है |

खाप पंचायतें हैं घर घर में
इश्क़ के नाम से डर लगता है |

जाने किस बात पे खंज़र निकले
बात करते हुए डर लगता है |

* सर्वथा मौलिक \ अप्रकाशित

- ०२०१२०१४ (C)&(P) - अbhinav अrun

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Comment by Abhinav Arun on January 5, 2014 at 4:41pm

शुक्रिया आ. चंद्रशेखर जी और नूतन वर्ष की बहुत शुभकामनायें आपको !!

Comment by Abhinav Arun on January 5, 2014 at 4:40pm

बहुत ख़ुशी हुई आदरणीय श्री अरुण अनंत जी , आभार और अभिवादन आपका 

Comment by Abhinav Arun on January 5, 2014 at 4:39pm

आदरणीय श्री सारथी जी आपने हौसला बढ़ाया बहुत शुक्रिया 

Comment by Abhinav Arun on January 5, 2014 at 4:38pm

आदरणीय श्री ब्रिजेश जी बहुत शुक्रिया आपका 

Comment by Abhinav Arun on January 5, 2014 at 4:38pm

परम आदरणीय श्री  विजय निकोरे साहब आपका आशीष मिला आभारी हूँ , सादर नमन !!

Comment by vijay nikore on January 5, 2014 at 10:40am

बहुत खूबसूरत खयाल हैं। बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by बृजेश नीरज on January 4, 2014 at 10:33pm

वाह! बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by Saarthi Baidyanath on January 4, 2014 at 9:54pm

बेहद कमाल के अशआर हैं सारे जनाब ...किसका नाम लूँ 

वर्ना अन्जान शहर लगता है
माँ जो होती है तो घर लगता है |

जाने किस दर्द से गुज़रा होगा ,
शेर जज़्बात से तर लगता है |....बहुत उम्दा साहब ..बहुत उम्दा 

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 4, 2014 at 5:33pm

आदरणीय भाई जी वाह वाह वाह मतले ने ही वाह वाही लूट ली है, एक एक शेर अत्यंत खूबसूरत बन पड़ा है बेहद शानदार हृदयस्पर्शी ग़ज़ल हेतु ढेरों दिली दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on January 4, 2014 at 7:35am

बहुत खूब आदरणीय! नूतन वर्ष की शुभकामनाएं।

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