जब रातें होंगी अधूरी सी ,
न बातें होंगी पूरी सी ,
न हाथों में हाथ होगा ,
न तेरा मेरा साथ होगा ,
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
याद में तेरी आँखों से आँसु छलक जाते ,
अब हम हर सपनों में बस तुझे ही पाते ,
इस वीराने में भी जन्नत सा मज़ा आता ,
अगर हम एक दूसरे के हो जाते।
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
सुलघति हुई गलियों में होगा चलना ,
काँटों भरी राहों में होगा मिलना ,
बस प्यार तेरा पाना ही होगी मेरी मंज़िल ,
मेरे ख्वाबों के लहरों का कैसा होगा साहिल।
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
हर पल गुज़ारना चाहूँ साथ तेरे ,
कोई क्या समझेगा जज़बात मेरे ,
प्यार से लगालू मौत को भी गले ,
अगर मौत के बाद भी तू मेरे साथ चले।
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
क्या ये फासले , कैसी है ये दूरियाँ ,
क्या प्यार में होती है ऐसी मजबूरियाँ ,
कुछ शक के पल ले आती दरारें हैं ,
बन जाती रिश्तों के बीच दीवारें हैं।
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
आँखों में धुंदली सी तस्वीर है ,
तुझे देख न पाऊँ कैसी ये तक़दीर है ,
मेरी हर सोच में तेरी झिलमिलाती यादें है ,
तेरे मेरे बीच क्यूँ ये अधूरे से वादें है।
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
नज़दीकियों ने फासलों को यूँ मिटा दिया ,
ख़ुशी और गम कि रंज में प्यार को जिता दिया ,
इस कदर ज़ख्म पाए थे हमने ,
मौत के भी आलम में जीना सिखा दिया।
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
बदलेगा मौसम बेमौसम यहाँ पे ,
दिल प्यार से खिलखिलाता हो जहाँ पे ,
मिल जाए झीलों का शहर हमें भी ,
बनाएं तेरे मेरे प्यार का आशियाँ वहाँ पे।
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
.
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
कल्पना के परिप्रेक्ष में सुन्दर प्रयास के लिए बधाई
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