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बज़्म थी तारों की उसमें चाँद का पहरा भी था
धूम थी रानाइयों की दिल मेरा तन्हा भी था
इक नदी थी नाव भी थी और था मौसम हसीं
साथ तुम थे बाग़ गुल थे इश्क मस्ताना भी था
यार की गलियों गया मैं फिर से लेकर आरज़ू
कुछ पुराने ख्वाब थे हर सिम्त वीराना भी था
कैसे - कैसे लोग मिलते हैं यहाँ देखो सही
बात में चीनी घुली थी दिल मगर काला भी था
वो अज़ब ही दौर था हर बात पर हँसते थे हम
ये जहाँ गोया लतीफ़ा मस्त बचकाना भी था
अमित दुबे
मौलिक व अप्रकाशित
(संशोधित)
Comment
क्या बात है, बहुत खूब ... बधाई
बहुत खूब , आपको हार्दिक बधाइयाँ ..... |
बहुत सुन्दर
सभी गुणीजनों को रचना अनुमोदन हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद .
आदरणीय योगराज सर विस्तृत मार्गदर्शन हेतु आपका हार्दिक आभार,मैं जल्द ही ग़ज़ल को दुरुस्त करने का प्रयास करता हूँ,आगे भी स्नेह एवं आशीर्वाद बनाये रखें ....सादर
बज़्म थी तारों की उसमें चाँद का पहरा भी था
धूम थी रानाइयों की दिल मेरा तन्हा भी था.... बढिया हार्दिक बधाई आपको ..
बहुत खूब अमित जी .....
भाई अमित कुमार जी, ग़ज़ल सुन्दर हुई है जिसके लिए आपको बधाई देता हूँ. इन तीन अश'आर पर आपकी तवज्जो दरकार है:
//यार की गलियां गया मैं फिर से लेकर आरज़ू
कुछ पुराने ख्वाब थे हर सिम्त वीराना भी था// पहले मिसरे में शब्द "गलियां" अटपटा सा लग रहा है. क्या यहाँ "गलियों" ज़यादा बेहतर न रहता ?
//कैसे - कैसे लोग मिलते हैं यहाँ देखो सही
बात में चीनी घुली थी दिल मगर कला भी था // दूसरे मिसरे में "कला" शायद " "काला" की जगह गलती से लिखा गया है. इसे दुरुस्त कर लें.
//वो अज़ब ही दौर था हर बात पर हँसते थे हम
ज़िन्दगी गोया लतीफ़ा मस्त बचकाना भी था // "ज़िंदगी" (स्त्रीलिंग) के साथ "लतीफ़ा", "मस्त", "बचकाना" और "था" (सभी पुल्लिंग) के प्रयोग से लिंगदोष आ गया है, इस ओर ध्यान दें.
बहुत उम्दा
इस अच्छी गज़ल के लिए बधाई।
सादर,
विजय निकोर
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