दॊहा छन्द (श्रंगार-रस)
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उठत गिरत झपकत पलक, दुपहरि साँझ प्रभात !!
चितवत चकित चकॊर-दृग,मुख-मयंक दुति गात !!१!!
नाभि नासिका कर्ण कुच, त्रि-बली उदर लकीर !!
ग्रीवा चिबुक कपॊल कटि,निरखत भयउँ अधीर !!२!!
हँसि हॆरति फॆरति नयन, मन्द मन्द मुस्काति !!
दन्त-पंक्ति ज्यूँ दामिनी, बिन गरजॆ चमकाति !!३!!
चॊटी मानहुँ कॊबरा, लटि नागिन की जात !!
कॆश समुच्चय कर रहा, नाग लॊक की बात !!४!!
भरीं भुजा दॊनहुँ सबल, उरू कॆर कॆ खम्भ !!
दॆखति कॆशव गिर पड़ॆ, भूल गयॆ सबु दम्भ !!५!!
पॊर पॊर रति चू रही , भृकुटि वलय तलवार !!
जॊ दॆखइ इक बार सॊ, पुनि पुनि रहा निहार !!६!!
चन्दा ज्यॊं आकाश मॆं, तैसहिँ बिंदिया भाल !!
कॆश गुच्छ मॆं घिर गयॆ, सॆनापति कॆ ख्याल !!७!!
निरखत मति मारी गई, मौन भयॆ मतिराम !!
घनानन्द आनन्द झरि, टप-कत स्वॆद ललाम !!८!!
दॆखि बिहारी हुइ भ्रमित, कहॆं धन्य भगवान !!
काया पइ माया करत, कौतुक कृपा निधान !!९!!
शान्त संतुलित चित्त अरु, हाँथ हरित रूमाल !!
उपमा सबु ऊसर लगहिँ, निरखि हंसिनी चाल !!१०!!
कबहुँ गुरॆरति हाँथ लइ, चुनरी पट कर छॊर !!
कबहूँ दाँत दबाइ कइ, निरखत मनहुँ चकॊर !!११!!
रसिक लॆखनी और मसि, दॊनॊं करॆं सवाल !!
रचत विधाता कहुँ लगॆ, जानॆ कितनॆ साल !!१२!!
संयम सॆ हम बच गयॆ, वरना जातॆ प्राण !!
कामदॆव नॆ हिय हनॆ, प्रतिपल लाखॊं बाण !!१३!!
कवि-"राज बुन्दॆली"
०८/०१/२०१४
पूर्णत:मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
वाह वाह आदरणीय बुन्देली साहब अत्यंत सुन्दर मधुर मनमोहक दोहावली रची है आपने श्रृंगार रस का इतना सुन्दर वर्णन आय हाय हाय कमाल कर दिया आपने. किस दोहे को सराहूँ और किसे नहीं. हृदयतल से बहुत बहुत बधाई स्वीकारें. जय हो
आदरणीय Shyam Narain Verma जी भाई साहब,,,,,सराहना एवं प्रोत्साहन के लिये दिल से आभारी हूं आपका,,,,
आदरणीय ,गिरिराज भंडारी,,जी इस स्नेह के लिये बहुत बहुत आभार आपका,,,,
आदरणीय राज बुनदेली जी , सुन्दर श्रृंगार रस से भीगे दोहों के लिये आपको बधाई ॥
बहुत सुन्दर भावों से सजी रचना बहुत 2 बधाई ....... |
आद.,,,,, ajay sharma जी भाई साहब,,,,,सराहना एवं प्रोत्साहन के लिये दिल से आभारी हूं आपका,,,,,
भाई,,Baidya Nath 'सारथी' जी,,,बहुत बहुत धन्यवाद,,,,सराहना एवं प्रोत्साहन के लिये,,,,,,
कबहुँ गुरॆरति हाँथ लइ, चुनरी पट कर छॊर !!
कबहूँ दाँत दबाइ कइ, निरखत मनहुँ चकॊर !!११!!.
adwetiya...........
manmohak......
नाभि नासिका कर्ण कुच, त्रि-बली उदर लकीर !!
ग्रीवा चिबुक कपॊल कटि,निरखत भयउँ अधीर !!२!!
पॊर पॊर रति चू रही , भृकुटि वलय तलवार !!
जॊ दॆखइ इक बार सॊ, पुनि पुनि रहा निहार !!६!!
कबहुँ गुरॆरति हाँथ लइ, चुनरी पट कर छॊर !!
कबहूँ दाँत दबाइ कइ, निरखत मनहुँ चकॊर !!११!!......बेजोड़ ...बहुत ही सुन्दर ..व मनमोहक
आदरणीय,,S. C. Brahmachari,,,जी इस स्नेह के लिये बहुत बहुत आभार आपका,,,,
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