एक गज़ल
(मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन)
कहीं सूरत नहीं मिलती,कहीं सीरत नहीं मिलती ॥
वफ़ा करकॆ मुनासिब सी,हमॆं कीमत नहीं मिलती ॥१॥
लियॆ उल्फ़त फिरॆ दर-दर,वफ़ाऒं का भरम पालॆ,
ज़हां मॆं प्यार की हमकॊ,खरी दौलत नहीं मिलती ॥२॥
मिटा दीं आज हमनॆ सब, लकीरॆं हाँथ की अपनॆ,
मिटा दूँ नाम इक तॆरा, यही ताक़त नहीं मिलती ॥३॥
सुनॆं हैं प्यार कॆ किस्सॆ, ज़मानॆ कॊ बहुत कहतॆ,
किताबॊं मॆं लिखा तॊ है,मगर चाहत नहीं मिलती ॥४॥
दिलॆ - बॆज़ार इतनॆं है, न पूँछॊ हाल तुम इनसॆ,
इबादत रॊज करतॆ हैं, मगर राहत नहीं मिलती ॥५॥
हमॆं भी प्यार मिल जायॆ, कहाँ तक़दीर अपनी है,
हमारी अब उसूलॊं सॆ, कहीं आदत नहीं मिलती ॥६॥
छुपायॆ "राज" जिनकॆ हैं, लगाकॆ जान की बाजी,
वही बॊलॆ भुला दॊ सब, हमॆं फ़ुर्सत नहीं मिलती ॥७॥
कवि - "राज बुन्दॆली"
२१/०३/२०१४
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना
Comment
मिटा दीं आज हमनॆ सब, लकीरॆं हाँथ की अपनॆ,
मिटा दूँ नाम इक तॆरा, यही ताक़त नहीं मिलती.. उम्दा !!
इस ग़ज़ल पर दाद कुबूल करें भाई्जी
ये शेर ख़ास तौर पर पसंद आया
दिलॆ - बॆज़ार इतनॆं है, न पूँछॊ हाल तुम इनसॆ,
इबादत रॊज करतॆ हैं, मगर राहत नहीं मिलती
उम्दा कहा
इस मिसरे के भाव पर फिर से गौर फरमाएं .....
हमारी अब उसूलॊं सॆ, कहीं आदत नहीं मिलती
उसूलों से आदत न मिलना कोई सकारात्मक बात तो है नहीं ...
वाह! बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!
यूँ तो सभी अशआर बहुत अच्छे हैं लेकिन यह शेर विशेष रूप से मुझे पसंद आया-
//मिटा दीं आज हमनॆ सब, लकीरॆं हाँथ की अपनॆ,
मिटा दूँ नाम इक तॆरा, यही ताक़त नहीं मिलती//
लियॆ उल्फ़त फिरॆ दर-दर,वफ़ाऒं का भरम पालॆ,
ज़हां मॆं प्यार की हमकॊ,खरी दौलत नहीं मिलती || वाह !!
वाह, खूबसूरत ग़ज़ल राज जी !
bahut khoob sir ji achchhi gazal ke liye badhai,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
आप का हरेक शेर तारीफे काबिल है . किसे अच्छा कहे ? समझ में नहीं आ रहा है . हरेक शेर आपने आप में बेहत्तरीन है . बधाई .
आ0 बुन्देली भार्इ जी, सादर प्रणाम! बहुत खूब गजल कही है। क्या बात है.....//छुपायॆ "राज" जिनकॆ हैं, लगाकॆ जान की बाजी,
वही बॊलॆ भुला दॊ सब, हमॆं फ़ुर्सत नहीं मिलती ॥//------हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। सादर,
हमॆं भी प्यार मिल जायॆ, कहाँ तक़दीर अपनी है,
हमारी अब उसूलॊं सॆ, कहीं आदत नहीं मिलती |
वाह आदरणीय खुबसूरत गजल
बहुत अच्छी ग़ज़ल, बधाई
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