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एक गज़ल ( कवि - "राज बुन्दॆली")

एक गज़ल

(मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन)

कहीं सूरत नहीं मिलती,कहीं सीरत नहीं मिलती ॥
वफ़ा करकॆ मुनासिब सी,हमॆं कीमत नहीं मिलती ॥१॥

लियॆ उल्फ़त फिरॆ दर-दर,वफ़ाऒं का भरम पालॆ,
ज़हां मॆं प्यार की हमकॊ,खरी दौलत नहीं मिलती ॥२॥

मिटा दीं आज हमनॆ सब, लकीरॆं हाँथ की अपनॆ,
मिटा दूँ नाम इक तॆरा,  यही ताक़त नहीं मिलती ॥३॥

सुनॆं हैं प्यार कॆ किस्सॆ, ज़मानॆ कॊ बहुत कहतॆ,
किताबॊं मॆं लिखा तॊ है,मगर चाहत नहीं मिलती ॥४॥

दिलॆ - बॆज़ार इतनॆं है, न पूँछॊ हाल तुम इनसॆ,
इबादत रॊज करतॆ  हैं, मगर राहत नहीं मिलती ॥५॥

हमॆं भी प्यार मिल जायॆ, कहाँ तक़दीर अपनी है,
हमारी अब उसूलॊं सॆ, कहीं आदत नहीं मिलती ॥६॥

छुपायॆ "राज" जिनकॆ हैं, लगाकॆ जान की बाजी,
वही बॊलॆ भुला दॊ सब, हमॆं फ़ुर्सत नहीं मिलती ॥७॥

कवि - "राज बुन्दॆली"
२१/०३/२०१४
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना

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Comment by Saurabh Pandey on March 27, 2014 at 11:54pm

मिटा दीं आज हमनॆ सब, लकीरॆं हाँथ की अपनॆ,
मिटा दूँ नाम इक तॆरा,  यही ताक़त नहीं मिलती..  उम्दा !!

इस ग़ज़ल पर दाद कुबूल करें भाई्जी

Comment by वीनस केसरी on March 24, 2014 at 1:02am

ये शेर ख़ास तौर पर पसंद आया

दिलॆ - बॆज़ार इतनॆं है, न पूँछॊ हाल तुम इनसॆ,
इबादत रॊज करतॆ  हैं, मगर राहत नहीं मिलती

उम्दा कहा

इस मिसरे के भाव पर फिर से गौर फरमाएं .....
हमारी अब उसूलॊं सॆ, कहीं आदत नहीं मिलती

उसूलों से आदत न मिलना कोई सकारात्मक बात तो है नहीं ...

Comment by बृजेश नीरज on March 23, 2014 at 11:43pm

वाह! बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!

यूँ तो सभी अशआर बहुत अच्छे हैं लेकिन यह शेर विशेष रूप से मुझे पसंद आया-

//मिटा दीं आज हमनॆ सब, लकीरॆं हाँथ की अपनॆ,
मिटा दूँ नाम इक तॆरा,  यही ताक़त नहीं मिलती//

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 23, 2014 at 4:19pm

लियॆ उल्फ़त फिरॆ दर-दर,वफ़ाऒं का भरम पालॆ,
ज़हां मॆं प्यार की हमकॊ,खरी दौलत नहीं मिलती ||  वाह !!

वाह, खूबसूरत ग़ज़ल राज जी !

Comment by gumnaam pithoragarhi on March 22, 2014 at 8:25pm

bahut khoob sir ji achchhi gazal ke liye badhai,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

Comment by Omprakash Kshatriya on March 22, 2014 at 7:03am

आप का हरेक शेर तारीफे काबिल है . किसे अच्छा कहे ? समझ में नहीं आ रहा है . हरेक शेर आपने आप में बेहत्तरीन है . बधाई .

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 21, 2014 at 10:25pm

आ0 बुन्देली भार्इ जी, सादर प्रणाम! बहुत खूब गजल कही है। क्या बात है.....//छुपायॆ "राज" जिनकॆ हैं, लगाकॆ जान की बाजी,
वही बॊलॆ भुला दॊ सब, हमॆं फ़ुर्सत नहीं मिलती ॥//------हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। सादर,

Comment by Sarita Bhatia on March 21, 2014 at 8:32pm

हमॆं भी प्यार मिल जायॆ, कहाँ तक़दीर अपनी है,
हमारी अब उसूलॊं सॆ, कहीं आदत नहीं मिलती |

वाह आदरणीय खुबसूरत गजल 

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on March 21, 2014 at 3:46pm

बहुत अच्छी ग़ज़ल, बधाई

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