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स्वार्थ और प्यार

"स्वार्थ और प्यार "


मानव बिकाऊ है जमी पर , मानवता की आड़ में।
ईमान बिकता है यहाँ पर , धर्म जाए भाड़ में ।।
भ्रष्टाचार का खू लगा है ,हर मानव की दाड़ में।
ऐसा बिगाड़ा इंसा जैसे ,बच्चा बिगड़ता लाड़ में।।
स्वार्थ की खातिर बेचा देश , दुनियाँ के बाजार में।
वतन किया नीलाम देखो ,मानव के सरदार ने।।
प्यार कभी न बजता यारों ,खुदगर्जी के साज में।
और कभी न स्वार्थ टिकता ,दिलबर के दरबार में।।
इन दोनों का साथ तो जैसे ,जल पावक के साथ में।
या निकला हो सूरज कोई , अमावस की रात में।।

.

मौलिक व अप्रकाशित
चौथमल जैन

Views: 791

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Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on January 15, 2014 at 5:12pm

बहुत खूब , बधाई आ. चौथमल भाई ।


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 15, 2014 at 2:52pm

भावप्रधान रचना है, शिल्प पर और काम करने की जरुरत है | 

मानव बिकाऊ है मानवता की आड़ में।
बिकता ईमान है धर्म जाए भाड़ में ।।

बहुत बहुत बधाई आदरणीय चौथमल जैन जी |

Comment by Meena Pathak on January 15, 2014 at 2:03pm

सुन्दर रचना .. बधाई आप को आदरणीय 

Comment by Shyam Narain Verma on January 15, 2014 at 9:59am
इस खूबसूरत  रचना की हार्दिक बधाई...

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