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जाग रे मन !

कब तक यूं ही सोएगा

जग मे मन को खोएगा

अब तो जाग रे मन !!

1)

सत्कर्मों की माला काहे न बनाई

पाप गठरिया है  सीस  धराई  

जाग रे !!!!

2)

माया औ पद्मा कबहु काम न आवे

नात नेवतिया साथ कबहु न निभावे

जाग रे !!!!

3)

दिवस निशि सब विरथा ही गंवाई

प्रीति की रीति अबहूँ  न निभाई

जाग रे !!!!!

4)

सारा जीवन यही जुगत लगाई

मान अभिमान सुत दारा पाई

जाग रे !!!!

5)

अब काहे मनवा रह रह काँपे  

जब लगाय रहे लेवइया हाँके

जाग रे !!!!!

कब तक यूं ही सोएगा

जग मे मन को खोएगा 

अब तो जाग रे मन !!

 

 अप्रकाशित एवं मौलिक 

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on January 21, 2014 at 10:26pm

आदरणीय बृजेश जी आपके कथन को पूरा समर्थन देती हूँ , आ0 प्राची जी ने उन दोषों को इंगित किया है मुझे भी कुछ कमी लग रही थी किन्तु स्पष्ट नहीं हो प रहा था। आ0 प्राची जी आपका हार्दिक आभार । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 21, 2014 at 9:15pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी 

भक्ति भाव को प्रस्तुत करती सुन्दर भावनाएं अभिव्यक्त हुई हैं 

सोएगा भरमाएगा जैसे शब्दों की तुकांतता पर गौर कीजिये... ये कर्णप्रिय नहीं लगतीं ....

या तो सोएगा के साथ खोएगा रोएगा बोएगा जैसा शब्द होना चाहिए 

या भरमाएगा के साथ इतराएगा , ठोकर खाएगा , निभाएगा, बिसराएगा आदि शब्द होने चाहियें 

साथ ही द्विपदियों में भी यदि सम मात्रिकता रहती तो बेहतर होता....

आप अब शिल्पगत प्रयासों को भी सदिश कीजिये.. तो आनंद बहुगुणा हो जाएं 

शुभकामनाएं 

Comment by बृजेश नीरज on January 20, 2014 at 12:03am

आदरणीया अन्नपूर्णा जी, इस सुन्दर रचना पर आपको हार्दिक बधाई!

वैसे सुधीजनों ने आपकी इस रचना को अनुमोदित कर दिया है, लेकिन मुझे लगता है कि रचना कुछ और समय मांग रही है. हो सकता है कि यह मेरा भ्रम ही हो.

सादर!

Comment by annapurna bajpai on January 17, 2014 at 9:35pm

आ0 कुंती दीदी , सावित्री जी , आ0 सौरभ जी , आ0 भण्डारी जी , आ0 मीना दी , आ0 ब्रम्हचारी जी  आप सब का हार्दिक आभार । 

Comment by S. C. Brahmachari on January 17, 2014 at 8:33pm

मन को झकझोरती सुंदर रचना। बधाई हो बहन अन्नपूर्णा जी ......... याद आती है रचना --- मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे, काश  ये मन हरी सुमिरन मे ही लगा रहता ....... 

Comment by Meena Pathak on January 17, 2014 at 1:26pm
बहुत सुन्दर ... बधाई अप को

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 17, 2014 at 12:20pm

आदरणीय अन्ंपूर्णा जी , अंतरात्मा को जगाती आपकी रचना के लिये आपको हार्दिक बधाई ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 17, 2014 at 12:19am

पारंपरिक गीतों की शैली में यह रचना निर्गुनिया पढ़ती है.

बधाई अन्नपूर्णाजी.

Comment by Savitri Rathore on January 16, 2014 at 10:05pm

अतिसुन्दर रचना अन्नपूर्णा जी !

Comment by coontee mukerji on January 16, 2014 at 9:07pm

अंतरात्मा को जगाती बहुत ही सुंदर प्रस्तुति.....अन्नपूर्णा जी आपको हार्दिक बधाई.

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