जाग रे मन !
कब तक यूं ही सोएगा
जग मे मन को खोएगा
अब तो जाग रे मन !!
1)
सत्कर्मों की माला काहे न बनाई
पाप गठरिया है सीस धराई
जाग रे !!!!
2)
माया औ पद्मा कबहु काम न आवे
नात नेवतिया साथ कबहु न निभावे
जाग रे !!!!
3)
दिवस निशि सब विरथा ही गंवाई
प्रीति की रीति अबहूँ न निभाई
जाग रे !!!!!
4)
सारा जीवन यही जुगत लगाई
मान अभिमान सुत दारा पाई
जाग रे !!!!
5)
अब काहे मनवा रह रह काँपे
जब लगाय रहे लेवइया हाँके
जाग रे !!!!!
कब तक यूं ही सोएगा
जग मे मन को खोएगा
अब तो जाग रे मन !!
अप्रकाशित एवं मौलिक
Comment
आदरणीय बृजेश जी आपके कथन को पूरा समर्थन देती हूँ , आ0 प्राची जी ने उन दोषों को इंगित किया है मुझे भी कुछ कमी लग रही थी किन्तु स्पष्ट नहीं हो प रहा था। आ0 प्राची जी आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीया अन्नपूर्णा जी
भक्ति भाव को प्रस्तुत करती सुन्दर भावनाएं अभिव्यक्त हुई हैं
सोएगा भरमाएगा जैसे शब्दों की तुकांतता पर गौर कीजिये... ये कर्णप्रिय नहीं लगतीं ....
या तो सोएगा के साथ खोएगा रोएगा बोएगा जैसा शब्द होना चाहिए
या भरमाएगा के साथ इतराएगा , ठोकर खाएगा , निभाएगा, बिसराएगा आदि शब्द होने चाहियें
साथ ही द्विपदियों में भी यदि सम मात्रिकता रहती तो बेहतर होता....
आप अब शिल्पगत प्रयासों को भी सदिश कीजिये.. तो आनंद बहुगुणा हो जाएं
शुभकामनाएं
आदरणीया अन्नपूर्णा जी, इस सुन्दर रचना पर आपको हार्दिक बधाई!
वैसे सुधीजनों ने आपकी इस रचना को अनुमोदित कर दिया है, लेकिन मुझे लगता है कि रचना कुछ और समय मांग रही है. हो सकता है कि यह मेरा भ्रम ही हो.
सादर!
आ0 कुंती दीदी , सावित्री जी , आ0 सौरभ जी , आ0 भण्डारी जी , आ0 मीना दी , आ0 ब्रम्हचारी जी आप सब का हार्दिक आभार ।
मन को झकझोरती सुंदर रचना। बधाई हो बहन अन्नपूर्णा जी ......... याद आती है रचना --- मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे, काश ये मन हरी सुमिरन मे ही लगा रहता .......
आदरणीय अन्ंपूर्णा जी , अंतरात्मा को जगाती आपकी रचना के लिये आपको हार्दिक बधाई ॥
पारंपरिक गीतों की शैली में यह रचना निर्गुनिया पढ़ती है.
बधाई अन्नपूर्णाजी.
अतिसुन्दर रचना अन्नपूर्णा जी !
अंतरात्मा को जगाती बहुत ही सुंदर प्रस्तुति.....अन्नपूर्णा जी आपको हार्दिक बधाई.
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