क्षितिज
दूर छोर पर
एकाकार होते
सिन्दूरी आसमान
और हरी धरती
उस रेखा का कोई रंग नहीं
एक स्थिति
खाली बाल्टी
और उसमें
नल से
बूँद-बूँद टपकता पानी
मैं देख रहा हूँ
किंकर्तव्यविमूढ़
संघर्ष
तपते दिनों के बाद
सर्द हवाओं का मौसम
कब से बारिश नहीं हुई
बहुत से सपने सूख गए
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
जो भी चर्चा मेरे इस तुक्ष प्रयास पर हुई है, वह मेरे लिए बहुत उपयोगी है. चर्चा यह भी दर्शाती है कि रचना पाठक के सामने जाने के बाद उसके अर्थों में ही जीती है.
पहली क्षणिका में रेखा का कोई रंग नहीं, यह स्टेटमेंट मैंने सिन्दूरी और हरे रंग के सन्दर्भों में प्रयोग किया है. मैंने उस अवस्था का ही वर्णन किया है जब आसमान सिन्दूरी और धरती हरी होती है. यह दोनों रंग धार्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं.
तीसरी क्षणिका में मौसम का सीक्वेंस जानबूझकर वैसा ही रखा था. जीवन में कठिन दिनों के बाद अक्सर रिश्ते शुष्क और ठण्डे हो जाते हैं. यूँ भी भारतीय कैलेंडर में चैत्र से वर्ष की शुरुआत होती है और उस समय गर्मी का ही मौसम होता है.
चर्चा में जो भी बिंदु उठे हैं, वे रचनाकर्म को सघन और तार्किक करने के लिए महत्वपूर्ण हैं. उन बिन्दुओं के अनुसार रचना को नया रूप देने का प्रयास करूँगा.
सादर!
आदरणीय शिज्जु जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार! आप ही लोगों से सीखकर मैं कुछ कलम चला पा रहा हूँ!
आदरणीय बृजेश जी बहुत खूबसूरत रचना है बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय सौरभ सर और आदरणीया कुन्ती जी की चर्चा से ये साफ पता लगता है कि एक रचनाकार कितनी गहराई से सोचता है, जिस गहराई से आपने इस रचना का विश्लेषण किया है उससे बहुत कुछ सीखने को मिला है, इस मंच की यही खूबी मुझे बाँधे हुये है।
आदरणीय बृजेश भाई , बहुत सुन्दर क्षणिकायें है !! आदरणीय नादिर खान भाई जी से सहमत हूँ , आपकी रचना से कुछ न कुछ सीखने मिलता है ॥ आपको बहुत बहुत बधाइयाँ ॥
आदरणीया कुंती जी आपका हार्दिक आभार! आपने रचना को विस्तार भी दिया और नया आयाम भी!
सादर!
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! रचना पर आपका मार्गदर्शन उपयोगी है. इसे नया रूप देने का प्रयास करता हूँ.
सादर!
आदरणीय नादिर खान जी, आपका हार्दिक आभार!
मैं भी साहित्य की कक्षा का छात्र ही हूँ.
//यह है सगुण रूप जो इंसानी आँखें देखता है .. उस रेखा का कोई रंग नहीं.........यहाँ रचनाकार की दृष्टि निर्गुण की ओर है......निर्गुण का कोई रूप नहीं कोई आकार नहीं. //
आदरणीया, कुन्तीजी, आपकी आध्यात्मिक विचारधारा को नमन. लेकिन मूल प्रश्न रह ही जाता है, और वो कि ऐसे में फिर इस कविता (या भावशब्द) का प्रयोजन क्या रह गया ?
वैचारिक रूप से अधिकांश सक्षम यह तो जानते ही हैं कि सगुण की सीमा के पार ही ’वह’ लोक है. मेरी पाठकीय दृष्टि भी वहाँ तक गयी थी, लेकिन मेरी सोच ने यही प्रश्न खड़े किये कि क्या एक फ्लैट स्टेटमेण्ट से इस प्रस्तुति का प्रयोजन सध जाता है ? यदि ऐसा है तो मैं भी ’हाँ’ करूँ. लेकिन मैं नहीं कर पाया.
आदरणीया कुन्तीजी, अतुकान्त रचनाओं पर आपकी इतनी विशद प्रतिक्रिया से मन प्रसन्न है.
सादर
बृजेश जी की क्षणिका क्षितिज की अंतिम पंक्ति--उस रेखा का कोई रंग नहीं----अगर दार्शनिक दृष्टि से देखा जाय तो अर्थ स्पष्ट झलकता है...
दूर छोर पर
एकाकार होते
सिन्दूरी आसमान
और हरी धरती.......यह है सगुण रूप जो इंसानी आँखें देखता है
उस रेखा का कोई रंग नहीं.........यहाँ रचनाकार की दृष्टि निर्गुण की ओर है......निर्गुण का कोई रूप नहीं कोई आकार नहीं.
दूसरी क्षणिका......स्थिति.....यहाँ रचनाकार ने उस स्थिति का वर्णन किया जब नल से पानी तो गिरता है...मगर बूँद बूँद--- यह स्थिति
कितनी कष्टदायक होती है यह कोई किसी भुक्तभोगी से पूछें.
तीसरी क्षणिका....
संघर्ष
तपते दिनों के बाद
सर्द हवाओं का मौसम......यहाँ तपते दिनों के बाद.....सर्द हवाओं का मौसम.....बाद शब्द एक अंतराल को दर्शाता है.
कब से बारिश नहीं हुई
बहुत से सपने सूख गए.....यहाँ रचनाकार की सशक्त कलम का परिचय मिलता हैं....बारिश न होने से क्या क्या नहीं होता है यह हर एक को पता है.एक पाठक की दृष्टि से ऐसा ही मैं बृजेश जी की रचना पढ़कर समझी हूँ.
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