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दुनिया में जितना पानी है

उसमें

आदमी के पसीने का योगदान है

 

गंध भी होती है पसीने में

 

हाथ की लकीरों की तरह

हर व्यक्ति अलग होता है गंध में

फिर भी उस गंध में

एक अंश समान होता है

जिसे सूँघकर

आदमी को पहचान लेता है

जानवर

 

धीरे-धीरे कम हो रही है

यह गंध

कम हो रहा है पसीना

और धरती पर पानी भी  

-  बृजेश नीरज 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on February 2, 2014 at 8:17pm

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार!

आपके कहे से सहमत हूँ! यह गलती शायद मुझसे पोस्ट करते समय हुई. मूल कविता में 'भी' का प्रयोग मैंने किया था. खैर, गलती तो गलती. इसे अब सुधार लेता हूँ!

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 2, 2014 at 5:22pm

भाई ब्रुजेशजी, आपकी इस मक़बूल कविता पर अब आ पाया हूँ. खेद है. लेकिन एक-एक कर ब्लॉग की रचनाओं पर आ रहा था.

इसकी मकबूलियत के कारण अब इस रचना पर कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा. सिवा इसके कि बहुत-बहुत बधाई स्वीकारिये. साथ ही, भावनाओं ही नहीं बल्कि तार्किक रूप से वैचारिक रचनाओं का निर्वहन करते रहिये, जैसा कि आप करते भी हैं.
ऐसा मैंने इसलिये कहा है कि, दुनिया में जितना पानी है /उसमें /आदमी के पसीने का योगदान है  कहने से एक विचित्र भ्रम उत्पन्न होता है. क्या आदमी का वज़ूद पानी से पुराना है ! आप भी जानते हैं कि ऐसा नहीं है.  तो, पसीने का भी योगदान कहने से इस भ्रम का निवारण हो सकता है.

वैसे पूरी कविता अपने बिम्ब और भावप्रधान इंगितों के कारण अवश्य पठनीय हो गयी है.   
शुभेच्छाएँ.

Comment by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 7:37pm

आदरणीय विजय जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by विजय मिश्र on January 30, 2014 at 1:18pm
श्रम की संस्कृति और प्रकृति के समन्वय पर सुंदर प्रकाश अपना सुगंध लिए हुए |बधाई नीरजजी |
Comment by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 11:21am

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!

रचना को आपके अनुमोदन से आत्म-बल में वृद्धि हुई है!

सादर!

Comment by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 11:19am

आदरणीय अरुण भाई आपका हार्दिक आभार!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 30, 2014 at 11:10am

इंसानी पसीने के पीछे जज्बे, और उसकी गंध की विलगता फिर भी समानता पर कितनी सूक्ष्मता से महसूस कर यह अभिव्यक्ति हुई है.. और उसे भूगर्भ के जल के समान घटता दर्शा बहुत सुदृढ़ विस्तार या आधार दिया है आपने... बहुत सुन्दर 

धरा पर पानी के साथ ही आँख का पानी भी घटता महसूस होता है...मानवता में.

इस सुन्दर प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई आ० बृजेश जी 

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 30, 2014 at 10:51am

आदरणीय बृजेश भाई जी वाह गागर में सागर भर दिया आपने बहुत ही कम शब्दों में बहुत कुछ समाहित कर दिया आपने मर्मस्पर्शी रचना बहुत बहुत बधाई आपको.

Comment by बृजेश नीरज on January 29, 2014 at 10:56am

आदरणीया जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on January 29, 2014 at 10:56am

आदरणीया राजेश कुमारी जी आपका हार्दिक आभार!

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