दुनिया में जितना पानी है
उसमें
आदमी के पसीने का योगदान है
गंध भी होती है पसीने में
हाथ की लकीरों की तरह
हर व्यक्ति अलग होता है गंध में
फिर भी उस गंध में
एक अंश समान होता है
जिसे सूँघकर
आदमी को पहचान लेता है
जानवर
धीरे-धीरे कम हो रही है
यह गंध
कम हो रहा है पसीना
और धरती पर पानी भी
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार!
आपके कहे से सहमत हूँ! यह गलती शायद मुझसे पोस्ट करते समय हुई. मूल कविता में 'भी' का प्रयोग मैंने किया था. खैर, गलती तो गलती. इसे अब सुधार लेता हूँ!
सादर!
भाई ब्रुजेशजी, आपकी इस मक़बूल कविता पर अब आ पाया हूँ. खेद है. लेकिन एक-एक कर ब्लॉग की रचनाओं पर आ रहा था.
इसकी मकबूलियत के कारण अब इस रचना पर कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा. सिवा इसके कि बहुत-बहुत बधाई स्वीकारिये. साथ ही, भावनाओं ही नहीं बल्कि तार्किक रूप से वैचारिक रचनाओं का निर्वहन करते रहिये, जैसा कि आप करते भी हैं.
ऐसा मैंने इसलिये कहा है कि, दुनिया में जितना पानी है /उसमें /आदमी के पसीने का योगदान है कहने से एक विचित्र भ्रम उत्पन्न होता है. क्या आदमी का वज़ूद पानी से पुराना है ! आप भी जानते हैं कि ऐसा नहीं है. तो, पसीने का भी योगदान कहने से इस भ्रम का निवारण हो सकता है.
वैसे पूरी कविता अपने बिम्ब और भावप्रधान इंगितों के कारण अवश्य पठनीय हो गयी है.
शुभेच्छाएँ.
आदरणीय विजय जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!
रचना को आपके अनुमोदन से आत्म-बल में वृद्धि हुई है!
सादर!
आदरणीय अरुण भाई आपका हार्दिक आभार!
इंसानी पसीने के पीछे जज्बे, और उसकी गंध की विलगता फिर भी समानता पर कितनी सूक्ष्मता से महसूस कर यह अभिव्यक्ति हुई है.. और उसे भूगर्भ के जल के समान घटता दर्शा बहुत सुदृढ़ विस्तार या आधार दिया है आपने... बहुत सुन्दर
धरा पर पानी के साथ ही आँख का पानी भी घटता महसूस होता है...मानवता में.
इस सुन्दर प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई आ० बृजेश जी
आदरणीय बृजेश भाई जी वाह गागर में सागर भर दिया आपने बहुत ही कम शब्दों में बहुत कुछ समाहित कर दिया आपने मर्मस्पर्शी रचना बहुत बहुत बधाई आपको.
आदरणीया जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया राजेश कुमारी जी आपका हार्दिक आभार!
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