खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए
अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया
बोध-मर्म रहा अछूता
द्वार-बंद ज्ञान-गेह का
ओस चाटती भावदशा
छूछा है कलश नेह का
मन में पतझड़ आन बसा
अब बसंत का दौर गया
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय बृजेश जी रेह के बारे में थोड़ा और जानकारी देने के लिए बहुत २ आभार
स्वागत है.. .
आदरणीय सौरभ जी, आपका हार्दिक आभार!
जैसा कि मैंने आपसे चर्चा भी की थी, यह नवगीत काफ्री लम्बे समय तक मुझे तंग करता रहा. मैं स्वयं इससे असंतुष्ट ही था. कोई उपाय न सूझा तो आखिर में पोस्ट कर दिया. कभी-कभी दिमाग काम करना बंद कर देता है.
आपने रास्ता सुझा दिया है. इसे बेहतर करने का प्रयास करता हूँ. तब आपके सामने पुनः प्रस्तुत करूँगा.
सादर!
आपके इस नवगीत से गुजरते हुए मन भाव ने आह से वाह का सफ़र किया.
पहले वाह :
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया ..
क्या कहा जाये भाई ! मन तो जैसे मुग्ध हुआ बस गूँगा हो गया है. क्या कहे कि गुड़ का स्वाद क्या है ! विह्वल मन की अकुलाहट और अन्यमनस्कता को ये पंक्तियाँ जिस ढंग से साझा कर रही हैं, वह आपके शब्द सामर्थ्य का अत्युत्तम उदाहरण है.
भाव सीधा अक्षर बन आँखों के सामने हैं.
बधाई-बधाई-बधाई !
और अब आह :
क्यों भइया, इस नवगीत के मुखड़े को टंग-ट्विस्टर का रूप क्यों दे दिया है आपने ?
सब के बाद शब्द .. यानि दो त्रिकल खण्ड-खण्ड के ठीक बाद एक बेचारा द्विकल सब, जो उच्चारण के लिहाज़ से अगले क्लिष्ट त्रिकल शब्द से बेदर्दी से चँपा हुआ ! और तो और, द्विकल के अक्षर भी लगभग वही, यानि उच्चारण के लिहाज़ से, जो अगले त्रिकल शब्द के हैं !
इसे क्या शब्द हुए सब खण्ड-खण्ड किया जाना आपके पद विन्यास के अनुसार अनुचित होगा ? यदि नहीं, तो ऐसा किया जाना सही होगा.
पहला बंद भी इसी दोष से बोझिल है. कथ्य का अर्थ तो मैं स्वीकार करता हूँ. इसके लिए हार्दिक बधाई. बन्द सार्थक है.
लेकिन शब्द-संयोजन अभी समय माँग रहा है. विशेषकर, बोध-मर्म रहा अछूता / द्वार-बंद ज्ञान-गेह का
सही शब्द छूँछा है.
विश्वास है, आपने मेरा कहना संप्रेष्य है.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय रमेश जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया कुंती जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! रचना आपको पसंद आई, मेरा प्रयास सार्थक हुआ.
आतंरिक गेयता और तुकांत को बेहतर करने का प्रयास अवश्य करूँगा!
सादर!
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं अति सुंदर
आदरणीय बृजेश जी. बहुत बहुत बधाई
बहुत सुंदर रचना.बृजेश जी. शब्द और भाव विन्यास एकदम बेजोड़......'
आदरणीय बृजेश जी
आपके गीतों नवगीतों के कथ्य सदा ही बाँध लेते हैं, और संवेदनाएं अन्दर तक उतरती चली जाती हैं
अर्थहीन सतही वक्तव्यों की पीढ़ा मुखर हो कर उभरी है..बहुत बहुत बधाई..
बन्दों में आतंरिक गेयता के लिए शब्द संयोजन में कुछ कमी ज़रूर लगी साथ ही 'दौर गया' वाली पंक्ति में तुकांतता भी कमज़ोर लगी. आपकी प्रस्तुतियों का इंतज़ार रहता है.
शुभकामनाएं स्वीकार करें
सादर.
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