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क्षितिज

 

दूर छोर पर

एकाकार होते 

सिन्दूरी आसमान

और हरी धरती

 

उस रेखा का कोई रंग नहीं

 

 

एक स्थिति

 

खाली बाल्टी

और उसमें

नल से

बूँद-बूँद टपकता पानी

 

मैं देख रहा हूँ

किंकर्तव्यविमूढ़

संघर्ष

 

तपते दिनों के बाद

सर्द हवाओं का मौसम

 

कब से बारिश नहीं हुई

बहुत से सपने सूख गए

 

-  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 17, 2014 at 2:38pm

बृजेश भाईजी, आपने फिर चकित किया है. दिल से बधाई स्वीकार कीजिये.
दूसरी क्षणिका ’एक स्थिति’ का तो साहब कोई जवाब नहीं है. समय के सापेक्ष गहरे चुभती निष्क्रियता का बहुत ही सटीक दृश्य उभर रहा है. बहुत खूब !

इसी क्रम में ’संघर्ष’ को भी लेना चाहूँगा. बहुत खूब भाव-शब्द हुए हैं. लेकिन तपते दिन और सर्द हवाओं को क्रम-परिवर्तन के साथ स्वीकार कर पा रहूँ. क्योंकि अपने भूभाग में तपते दिनों के बाद सर्द हवाओं का मौसम नहीं होता. चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हों. या फिर, आपकी रचना उस विकट परिस्थिति को इंगितों में साझा करे जो आपके रचनाकार ने समझा है.

इसी तरह, पहला भाव-चित्र ’क्षितिज’ में - उस रेखा का कोई रंग नहीं
भाईजी, सही है, क्षितिज का अपना कोई रंग नहीं होता. मग़र क्यों ? क्या उत्तर है इसका ? रचनाकार दे सकता है क्या ? नहीं न ! तो पाठक के ही स्वर में स्वर मिलाते हुए रचनाकार भी प्रश्न क्यों नहीं करता ? या, उत्तर है तो उसका इंगित साझा करे !

पुनः हार्दिक बधाई इस गंभीर कोशिश पर बृजेश भाई.

Comment by नादिर ख़ान on January 17, 2014 at 10:55am

अदरणीय बृजेश जी बहुत उम्दा क्षणिकाएँ। आपकी रचनाओं को पढ़ना भी सीखने जैसा है । आधुनिक कविताओं के क्षेत्र मे आपको महारत हासिल है ।

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