आत्मकथन
जब जब बनाना चाहा
शब्दों को मिसरी
कुछ पूर्वाग्रह
घोल गये कड़ुवाहट
नहीं बना पाया मैं
खुद को मधुमक्खी
तब कैसे होते मधु
मेरे कहे गये शब्द
मैंने चाहा दिखना
बगुले सा धवल
तब कहां से आती
कोयल सी मधुरता
काक होकर भी
कहां निभा पाया
काक का धर्म
बस जमाये रखी
गिद्ध दृष्टि
हर जीवित-मृत पर
समझ सकते हैं आप
कितना तुच्छ जीव
बनकर रह गया हूं मैं
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई गिरिराज जी आत्मकथन की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय coontee बहन मेरे प्रयास की प्रशंसा के लिए धन्यवाद.
आदरणीय मोहिनी बहन मेरे प्रयास की प्रशंसा के लिए धन्यवाद.आप सभी का मार्गदर्शन मिलता रहे यही कामना है.
आदरणीय भाई अखिलेश जी आत्मकथन की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद
आदरनीय लक्ष्मण भाई , बहुत सुन्दर आत्म चिंतन के लिये बहुत बधाइयाँ ॥
सुंदर अभिव्यक्ति
आत्मकथ, आत्ममंथन ही सबसे कठिन है और वो लिखने की आपकी कोशिश अच्छी लगी |
आदरणीय , इस सुंदर आत्मकथन पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें ॥
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