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बह्र : २१२ २१२ २१२

जब उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी नोच डाली गई

एक भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी नोच डाली गई

रीझ उठी नाचते मोर पे
मोरनी नोच डाली गई

खूब उड़ी आसमाँ में पतंग
जब कटी नोच डाली गई

देव मानव के चिर द्वंद्व में
उर्वशी नोच डाली गई
------------
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by अजय कुमार सिंह on January 26, 2014 at 2:32am

कठिन रदीफ का निर्वाहन करते हुए बेहतरीन ग़ज़ल कही भाई धर्मेन्द्र जी. बधाई.

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on January 25, 2014 at 5:27pm

बहुत सुंदर , धर्मेन्द्र भाई हार्दिक बधाई स्वीकार करें ॥ गज़ल की कोई जानकारी मुझे नहीं है, पर .........

जब उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी नोच डाली गई  .....  दोनों पंक्तियों में नोंच शब्द कुछ खटकता है । गजल के गुरू ही बता सकते हैं ।

ओढ़नी  रोज  डाली गई , जब उड़ी नोच डाली गई ॥ या  कुछ और  ।   ....   सादर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 25, 2014 at 6:31am

आदरणीय भाई धर्मेन्द्र जी , बहुत ही मार्मिक गजल कही है . हार्दिक बधाई .

एक भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी नोच डाली गई

ये पंक्तिया पश्चिम बंगाल में दो तीन दिन पूर्व एक आदिवासी बाला के साथ किये गए कुकृत्य कि पीड़ा का अक्श प्रतीत होता है . इसके लिए पुनः हार्दिक बधाई .

Comment by vandana on January 25, 2014 at 5:42am

खूब उड़ी आसमाँ में पतंग
जब कटी नोच डाली गई

बहुत मार्मिक ग़ज़ल आदरणीय 

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