हुआ है आज क्या घर में हर इक सामान बिखरा है
उधर खुश्बू पड़ी है और इधर गुलदान बिखरा है /१
मुहब्बत क्या है ये जाना मगर जाना ये मरकर ही
लिपटकर वो कफ़न से किस तरह बेजान बिखरा है /२
यहीं मैं दफ्न हूँ आ और उठाकर देख ले मिट्टी
मेरी पहचान बिखरी है मेरा अरमान बिखरा है /३
मुझे रुस्वाइयों का गम नहीं गम है तो ये गम है
लबों पर बेजुबानों के तेरा एहसान बिखरा है /४
ग़ज़ल के वास्ते मैं फिर नई पोशाक लाया हूँ
अलग ये बात पुर्जों में मेरा दीवान बिखरा है /५
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अरकान : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
सर्वथा मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय MUKESH SRIVASTAVA जी , एक आध मिसरे लिखने की कोशिश में लगा रहता हूँ ..! अनेक धन्यवाद आपका ! स्नेह देते रहिएगा ! सादर
जनाब Neeraj Mishra "प्रेम" साहब, बहुत मेहरबानी ..जो खाकसार को इज्जत बख्शी आपने ! नजरे -इनायत है साहब आपकी !..कोटिशः अभिनन्दन ! :)
आदरणीय Shyam Narain Verma जी ...ह्रदय तल से आभार व्यक्त कर रहा हूँ ! सादर नमन सहित :)
subhaaan allaah Baidhyanaath jee
काश मैंने लिखी होती काश मैंने कही होती
ग़ज़ल ये आपकी पढ़के मेरे ईमान बिखरे हैं ।
बहुत बहुत और बहुत खूबसूरत लिखा है ।
चरण स्पर्श जनाब वीनस केसरी साहब ! आपका स्नेह ही नाचीज का सरमाया है ! बस शीश नवांकर ,आपके चरणों में बैठा हूँ! सिखलाते रहिएगा ...सादर !
नई पोशाक लाया हूँ, ग़ज़ल के वास्ते देखो
अगरचे जानता हूँ मैं, यहाँ ‘दीवान’ बिखरे हैं
और आख़िरी शेर तक आते-आते दिल लुट चुका है ....
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