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212/ 212/ 212/ 212

 

पास लाई हमें जाने कब दूरियाँ

ये लगे है कि मिट जाये अब दूरियाँ

 

चाँदनी भी है कंदील भी हाथ में

फिर भी क्यूँ रौशनी से अजब दूरियाँ

                                                                  

याद आती रहे आपको मेरी तो

मैं कहूँ है बहुत मुस्तहब दूरियाँ

 

मुझको शिकवा न तुझको शिकायत कोई

दरमियाँ क्यूँ ये फिर बेसबब दूरियाँ

 

मेरी अफ़्सुर्दगी को बढ़ाये बहुत                  अफ़्सुर्दगी = उदासी

इक नये दर्द से रोज़ो-शब दूरियाँ

(मौलिक व अप्रकाशित )

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 20, 2014 at 9:39am

आदरणीय सौरभ सर मेरी रचना पर अपने बहुमूल्य विचार देने के लिये आपका आभारी हूँ, 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 2, 2014 at 8:12pm

प्रस्तुत ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई शिज्जू भाईजी..

भाई बृजेश के पूछे पर आपने जो कहा है वो विन्दुवत नहीं है. लेकिन आपकी बातें मनन के योग्य हैं.

वैसे काव्य विधा कोई हो, वह कहीं से उत्पन्न हुई हो, वह भाव-संप्रेषण के लिए साधन मात्र होती है. जैसे कि भाषा भी होती है. लेकिन साधन और भाषा को आइडेण्टिकल मानना भूल होगी. हम जिस भाषा में बातें करें, और हमें सहूलियत होती है वही विधा के माध्यम से साझा हो. लिखने वाला जिन शब्दों में सहजता और सरलता महसूस करता है वही प्रयोग करे. यदि आपकी भाषा उर्दू सम्मत भाषा है तो कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन सिर्फ़ ग़ज़ल के लिए फ़ारसी (उर्दू) शब्दों का प्रयोग करना उचित नहीं है.
इतना मैं मात्र इस लिए कह गया कि चर्चा हुई है.
शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 31, 2014 at 11:17pm

आदरणीया कुन्ती जी आपका आभार

Comment by coontee mukerji on January 31, 2014 at 9:15pm

सुंदर गज़ल के लिये बहुत बहुत बधाई...शिज्जू जी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 30, 2014 at 8:53pm

आदरणीय बृजेशजी आपका आभार. 

//उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल में अंतर क्या है- क्या सिर्फ लिपि का? // आपने वीनस जी का ये पोस्ट पढ़ा ही होगा //ग़ज़ल की लोकप्रियता तथा भारतीय परिवेश में ग़ज़ल और भाषा का इतिहास// इसके अनुसार सबसे पहले ग़ज़ल फारसी में कही गई मगर ग़ज़ल की लोकप्रियता के शिखर पर थी तब इसे उर्दू में कहा जाता था जिसमें अरबी और फारसी के शब्द भी होते थे मौजूदा दौर के शुअरा भी उर्दू के जानकार हैं, लेकिन पाठकों का बहुत बड़ा वर्ग उर्दू लिपि नही पढ़ सकता इसके अलावा हिन्दी के रचनाकार भी ग़ज़ल कहने लगे हैं l चूँकि ग़ज़ल को पहचान व लोकप्रियता तब मिली थी जब इसे उर्दू में कहा जाता था इसलिये अभी तक इसपे उर्दू का असर है। मौजूदा दौर के शायर बशीर बद्र साहब ने न सिर्फ उर्दू बल्कि इंग्लिश के शब्दों का भी  अपनी  रचना में समावेश किया है। यथा-

//कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ

वो ग़ज़ल का लहजा नया -नया न कहा हुआ न सुना हुआ//

उर्दू के कठिन शब्दों का प्रयोग पहले की तुलना मे अभी कम हो रहा है, अभी तक मैंने जितना सीखा है। उसके अनुसार ग़ज़ल विधा में शिल्प की बंदिशें सबसे ज़्यादा है। ग़ज़ल में काफिया बंदी करते समय बहुत ध्यान रखना पड़ता है, बह्र का ध्यान रखना पड़ता तदनुसार शब्दों का चयन करना पड़ता है क्यूँकि ये सब ग़ज़ल के अनिवार्य तत्व हैं।  और ग़ज़ल की रवानी के लिये कई बार ऐसे कठिन शब्द लेने पड़ जाते हैं, सिर्फ उर्दू ही नही कई बार ऐसे हिन्दी के शब्द आ जाते हैं जो आमतौर पे प्रचलन में नही है, उस समय भी कठिनाई होती है, यदि हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू के शब्दों का सही प्रयोग हुआ है तो इसमें ग़लत कुछ नही है।

उदाहरण के लिये मेरी रचना का एक मिसरा

//मेरी अफ़्सुर्दगी को बढ़ाये बहुत//  इसमें शब्द अफ़्सुर्दगी की जगह उदासी ले लेता हूँ, तब मैं कितने तरीके से लिख सकता हूँ

//यूँ मेरी इस उदासी को बढ़ाये बहुत

इक नये दर्द से रोज़ो-शब दूरियाँ//  यहाँ  मैं यूँ को रखूँ चाहे न रखूँ कोई फर्क नही पड़ेगा। अब यूँ की जगह

क्यूँ लिख के देखूँ तो 

//क्यूँ मेरी इस उदासी को बढ़ाये बहुत

इक नये दर्द से रोज़ो-शब दूरियाँ //  क्यूँ के साथ बहुत शब्द जम नही रहा बहरहाल बहुत कायम रखते हैं

//मेरी अफ़्सुर्दगी को बढ़ाये बहुत                 

इक नये दर्द से रोज़ो-शब दूरियाँ//

पहले शेर में प्रश्न किया जा रहा है दूसरे में बताया जा रहा है

अब यहाँ मेरा प्रश्न करना ज़्यादा असर डाल रहा है या बताना अब आप बतायें l इसके बाद मैं आगे की बात करूँगा


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 30, 2014 at 7:42pm

ग़ज़ल की सराहना के लिये आप सभी का शुक्रगुज़ार हूँ 

Comment by Saarthi Baidyanath on January 30, 2014 at 12:14pm

मुझको शिकवा न तुझको शिकायत कोई

दरमियाँ क्यूँ ये फिर बेसबब दूरियाँ.......लाजवाब ग़ज़ल हुई है जनाब ..! उम्दा अशआर दिल को छुते हुए !

Comment by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 12:11pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!

इस ग़ज़ल से हटकर एक बात यहाँ रखना चाहता हूँ, जिस पर चर्चा होनी चाहिए कि उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल में अंतर क्या है- क्या सिर्फ लिपि का? हिंदी ग़ज़ल में जिस तरह के कठिन उर्दू, फ़ारसी शब्दों का प्रयोग होने लगा है, उससे तो यही लगता है!

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on January 30, 2014 at 10:48am

पास लाई हमें जाने कब दूरियाँ

ये लगे है कि मिट जाये अब दूरियाँ............इक उम्मीद

मुझको शिकवा न तुझको शिकायत कोई

दरमियाँ क्यूँ ये फिर बेसबब दूरियाँ..............न जाने क्यूँ ?

क्या बात..बहुत खुबसूरत गजल, दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय शिज्जू जी

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 29, 2014 at 4:51pm

मेरी अफ़्सुर्दगी को बढ़ाये बहुत                  

इक नये दर्द से रोज़ो-शब दूरियाँ

याद आती रहे आपको मेरी तो

मैं कहूँ है बहुत मुस्तहब दूरियाँ  आदरणीय शिज्जू जी आपकी इस बेहतरीन ग़ज़ल का यह शेर मुझे बेहद रास आया ..सादर बधाई के साथ 

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