तेरी कुएँ सी प्यास
तेरी अघोरी भूख
भिखारन, तू नित्य मेरे आँगन में आती
एक धमकी
एक चुनौती
तेरे आशीष में होती
घबराकर मैं तेरी तृष्णा पालती.
तू मेरी धर्मभीरूता को खूब पहचानती
और, मेरी सहिष्णुता का गलत मतलब निकालती.
‘’दे अपना हाथ तुझे उबार दूँ.’’
तूने तड़प कर दुहाई दी
अपने कुनबे की.
भिखारन! तेरे कितने नाज़
तेरे कुकुरमुत्ते से उगते परिवार
गोंद से चिपके तेरे रीति रिवाज़
छोड़ अब माँगने की परम्परा.
काम कर, कुछ काम कर
चौका बासन कपड़े लत्ते धो
स्वाभिमान की रोटी पका
पर तू माने कब मेरी बात
मैं तुझे सहने पर मज़बूर.
रोज़ के उपदेशों से तंग आकर
एक दिन तूने कहा-
‘’माना कि नदी के होते दो किनार हैं
तू मालकिन मैं भिखारिन
तू दे कर माँगती
मैं माँगकर देती.’’ इतना कह
चल दी वह दूसरी गली मुस्काती
अपनी ही कथन से मात खाती
ठगी सी मैं रह गयी खड़ी.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)
Comment
आदरणीया कुंती दीदी बहुत सुंदर देती रचना , bahutबहुत बधाई आपको ।
वाह क्या बात कह दी कुंती दीदी
आदरणीया कुंती जी , सच बात है , हर कोई भिखमंगा ही है , कोई किसी से मांगता है तो कोई किसी से !! बहुत सुन्दर रचाना के लिये आपको बधाइयाँ ॥
तेरे कुकुरमुत्ते से उगते परिवार
गोंद से चिपके तेरे रीति रिवाज़
तू दे कर माँगती
मैं माँगकर देती.’’ इतना कह bahut sundar...
भावनाओं से ओतप्रोत रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें.... |
तू मालकिन मैं भिखारिन
तू दे कर माँगती
मैं माँगकर देती.’’
शानदार रचना आदरणीया बहुत२ बधाई
’माना कि नदी के होते दो किनार हैं
तू मालकिन मैं भिखारिन
तू दे कर माँगती
मैं माँगकर देती.’’ इतना कह
चल दी वह दूसरी गली मुस्काती
अपनी ही कथन से मात खाती
ठगी सी मैं रह गयी खड़ी................. बहुत सुन्दर दी , बहुत बहुत बधाई आप को | सादर
बहुत सुन्दर ...माना कि नदी के होते दो किनार हैं
तू मालकिन मैं भिखारिन
तू दे कर माँगती
मैं माँगकर देती... क्या खूब कहा है
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