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अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया

खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए

अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया

 

बोध-मर्म रहा अछूता  

द्वार-बंद ज्ञान-गेह का

ओस चाटती भावदशा 

छूछा है कलश नेह का

 

मन में पतझड़ आन बसा

अब बसंत का दौर गया 

 

विकृत रूप धारे अक्षर

शूल सरीखे चुभते हैं

रेह जमे मंतव्यों पर

बस बबूल ही उगते हैं

 

संवेदन के निर्जन में  

नहीं दिखे अब बौर नया

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on January 31, 2014 at 3:41pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on January 31, 2014 at 3:41pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी आपका बहुत-बहुत आभार! रचना को आपके अनुमोदन ने मुझे बहुत बल प्रदान किया!

Comment by बृजेश नीरज on January 31, 2014 at 3:40pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका बहुत-बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on January 31, 2014 at 3:39pm

आदरणीय नीरज जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by annapurna bajpai on January 31, 2014 at 11:28am

आ0 बृजेश जी गहरी संवेदनाओ  के साथ बहुत ही बढ़िया रचना हुई है जो कवि मन की मनोदशा को इंगित कर रही है । आपको बहुत बधाई । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 31, 2014 at 11:07am

खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए

अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया

 

बोध-मर्म रहा अछूता  

द्वार-बंद ज्ञान-गेह का

ओस चाटती भावदशा 

छूछा है कलश नेह का

 

मन में पतझड़ आन बसा

अब बसंत का दौर गया 

 नहीं नहीं अब तो बसंत का दौर आया है :))))) खैर ये तो मजाक रही ...कहते हैं कवी की कलम उसकी मनोदशा के अनुसार चलती है ...मनोदशा जो आस पास के परिवेश से ,प्रक्रति से सामाजिक सरोकारों से प्रेरित होती है ,ऐसे ही ये रचना कवी मन के कुछ उद्वेलित क्षणों की चुगली करती प्रतीत होती है भाव सम्प्रेषण लाजबाब है ...अतिसुन्दर ..अतिसुन्दर प्रस्तुति बहुत बहुत बधाई ब्रजेश जी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on January 31, 2014 at 10:52am

विकृत रूप धारे अक्षर

शूल सरीखे चुभते हैं

रेह जमे मंतव्यों पर

बस बबूल ही उगते हैं

 संवेदन के निर्जन में  

नहीं दिखे अब बौर नया...........बहुत सुंदर व् सार्थक

जीवन में वास्तविकता को बयां करती बेहतरीन रचना, हार्दिक बधाई आदरणीय बृजेश जी

Comment by Neeraj Neer on January 31, 2014 at 9:24am

बहुत बेहतरीन नव गीत , क्या कहने 

रेह जमे मंतव्यों पर

बस बबूल ही उगते हैं

 

संवेदन के निर्जन में  

नहीं दिखे अब बौर नया... बहुत खूब ..

Comment by बृजेश नीरज on January 31, 2014 at 7:40am

आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!

'छूछा' एक देशज शब्द है. 'रेह' को धोबी कपडे साफ़ करने के लिए प्रयोग करते हैं. रेह जब मिट्टी में बनने लगती है ती उसकी उर्वरता समाप्त हो जाती है. ऐसी मिट्टी में यदि कोई निर्माण किया जाता है तो यह उसे भी मुक्सान पहुंचाती है.

सादर!

Comment by बृजेश नीरज on January 31, 2014 at 7:29am

आदरणीय अजय जी आपका हार्दिक आभार! 

मैंने अपने भरसक तो सरल शब्दों के प्रयोग का ही प्रयास किया था! आप आदेश करें कि किन शब्दों के अर्थ उपलब्ध कराए जाएँ!

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