खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए
अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया
बोध-मर्म रहा अछूता
द्वार-बंद ज्ञान-गेह का
ओस चाटती भावदशा
छूछा है कलश नेह का
मन में पतझड़ आन बसा
अब बसंत का दौर गया
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया राजेश कुमारी जी आपका बहुत-बहुत आभार! रचना को आपके अनुमोदन ने मुझे बहुत बल प्रदान किया!
आदरणीय जितेन्द्र जी आपका बहुत-बहुत आभार!
आदरणीय नीरज जी आपका हार्दिक आभार!
आ0 बृजेश जी गहरी संवेदनाओ के साथ बहुत ही बढ़िया रचना हुई है जो कवि मन की मनोदशा को इंगित कर रही है । आपको बहुत बधाई ।
खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए
अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया
बोध-मर्म रहा अछूता
द्वार-बंद ज्ञान-गेह का
ओस चाटती भावदशा
छूछा है कलश नेह का
मन में पतझड़ आन बसा
अब बसंत का दौर गया
नहीं नहीं अब तो बसंत का दौर आया है :))))) खैर ये तो मजाक रही ...कहते हैं कवी की कलम उसकी मनोदशा के अनुसार चलती है ...मनोदशा जो आस पास के परिवेश से ,प्रक्रति से सामाजिक सरोकारों से प्रेरित होती है ,ऐसे ही ये रचना कवी मन के कुछ उद्वेलित क्षणों की चुगली करती प्रतीत होती है भाव सम्प्रेषण लाजबाब है ...अतिसुन्दर ..अतिसुन्दर प्रस्तुति बहुत बहुत बधाई ब्रजेश जी
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया...........बहुत सुंदर व् सार्थक
जीवन में वास्तविकता को बयां करती बेहतरीन रचना, हार्दिक बधाई आदरणीय बृजेश जी
बहुत बेहतरीन नव गीत , क्या कहने
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया... बहुत खूब ..
आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!
'छूछा' एक देशज शब्द है. 'रेह' को धोबी कपडे साफ़ करने के लिए प्रयोग करते हैं. रेह जब मिट्टी में बनने लगती है ती उसकी उर्वरता समाप्त हो जाती है. ऐसी मिट्टी में यदि कोई निर्माण किया जाता है तो यह उसे भी मुक्सान पहुंचाती है.
सादर!
आदरणीय अजय जी आपका हार्दिक आभार!
मैंने अपने भरसक तो सरल शब्दों के प्रयोग का ही प्रयास किया था! आप आदेश करें कि किन शब्दों के अर्थ उपलब्ध कराए जाएँ!
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