खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए
अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया
बोध-मर्म रहा अछूता
द्वार-बंद ज्ञान-गेह का
ओस चाटती भावदशा
छूछा है कलश नेह का
मन में पतझड़ आन बसा
अब बसंत का दौर गया
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!
बहुत बढ़िया , सटीक और सार्थक रचना आदरणीय
आभार कि मेरा नए शब्दों से भी परिचय हुआ यथा छूछा और रेह ...
अर्थ तो ज्ञात हुआ किन्तु रेह(क्षार युक्त मिट्टी) के बारे में थोड़ी जिज्ञासा है कि इसकी क्या २ विशेषता होती है
yadi kuch shabdon ka saral hindi arth aulabdh hota to ......
bhai ji gazab
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया..............बहुत सुन्दर ...बधाई स्वीकारें | सादर
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