मैं
तन्हा, खामोश बैठी,
एक दिन
निहार रही थी
अपना ही प्रतिबिम्ब
खूबसूरत झील में,
कई पक्षी
क्रीड़ा कर रहे थे
नावों में बैठे
कई जोडे़
अठखेलियाँ करती
सर्द हवा को
गर्मी दे रहे थे
झील के किनारे खडे़
ऊँचे-ऊँचे दरख्त
भी हिल रहे थे,
गले मिल रहे थे
तभी एंक चील ने
अचानक तेजी से
गोता लगाया
किनारे आई मछली को
मुँह मे दबा
जीवन क्षणमंगुर है
यह एहसास कराया
आज जो प्रतिबिम्ब
दिखे थे पानी में
कल वो रहेंगे या नहीं,
यह समझाया ।
अगले दिन झील पर
अलग ही समां था
न सर्द हवा
न दरख्तों का हिलना
झील के ठहरे से
पानी में
कश्तियों का बहना
थोड़ा कोलाहल,
ठहरी कश्ती में बैठी मैं
निहार रही थी
झील के पानी में
गोता लगाते
सूरज के प्रतिबिम्ब को
शान्त नीरव सांझ की
उतरती पालकी को ।
कुनमुनाती धूप,
विदा हो रही थी
झील के चमकते पानी पर
रात अपना डेरा डाल रही थी
सूरज एक दिन
निगल चुका था ।
मोहिनी चोरडिया चेन्नई
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
सही शब्द क्षणभंगुर है. इससे क्षणभंगुरता न कि क्षणमंगुरता.
संप्रेषणीयता पर तनिक प्रयास बहुत कुछ सार्थक करता जायेगा, आदारणीया..
सादर
जीवन की क्षणभंगुरता का वास्तविक एहसास जब हृदय करता है तो नज़रिया कैसे बदलने सा लगता है..इस बात को बहुत सुन्दरता से प्रस्तुत किया है आदरणीया मोहिनीचंद्रा जी..
सिर्फ कुछ एक जगह पन्क्चुएशन मार्क्स की और आवश्यकता है ताकि प्रस्तुति प्रवाह में निर्बाध स्पष्ट होती जाए.
सादर शुभकामनाएं
बहुत ही सुंदर रचना, बधाई बधाई
आप सबका आभार .
वाह! बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
बहुत सुंदर व दार्शनिक रचना है.....आपको बधाई.
वास्तविकता को बयां करती रचना पर , हार्दिक बधाई आदरणीया मोहिनी जी
जीवन की क्षण भंगुरता को छोटी-छोटी घटनाओं में अनुभव करवाती हुई अच्छी रचना बन पड़ी है आदरणीया।
आपको बहुत बधाई इस अभिव्यक्ति के लिए।
सादर
आदरणीया , जीवन के एक सत्य की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिये आपको हार्दिक से बधाइयाँ ॥
आओ मोहिनी जी बहुत सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।
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