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तरही ग़ज़ल -वंदना

सभी विद्वजनों से इस्लाह के लिए -

वज्न 2122   /   2122   /   2122   /   212  (2121)

कोई तुझसा होगा भी क्या इस जहाँ में कारसाज

डर कबूतर को सिखाने रच दिए हैं तूने बाज

 

तीरगी के करते सौदे छुपछुपा जो रात - दिन

कर रहे हैं वो दिखावा ढूँढते फिरते सिराज

 

ज्यादती पाले की सह लें तो बिफर जाती है धूप

कर्ज पहले से ही सिर था और गिर पड़ती है गाज

   

जो ज़मीं से जुड़ के रहना मानते हैं फ़र्ज़-ए-जाँ

वो ही काँधे को झुकाए बन के रह जाते मिराज

 

हम भला बढ़ते ही कैसे आड़े आती है ये सोच  

"माँगने वाला गदा है सदका माँगे या खिराज"

 

खींचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे

मैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज

 

पंछियों के खेल या फिर तितलियों का बाँकपन

मौज से गर देख पाऊं सुधरे शायद ये मिज़ाज  

**** 

"माँगने वाला गदा है सदका माँगे या खिराज" तरही मिसरा आदरणीय शायर अल्लामा इक़बाल साहब की ग़ज़ल से  है | 

***** 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on February 2, 2014 at 10:22pm

सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on February 2, 2014 at 7:11pm

कवि न होऊं नहिं बचन प्रवीनू..अति मति मंद सकल गुण हीनू...सात के सातों शेरों में..सातों समुद्रों की गंभीरता प्राप्त हुई..विशेषकर छठवां शेर तो प्रशांत महासागर प्रतीत हुआ..बधाई हो..

Comment by coontee mukerji on February 2, 2014 at 3:42pm

खींचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे

मैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज.....बहुत खूब वंदना जी..

Comment by Sarita Bhatia on February 2, 2014 at 11:33am

अरे इस तरह का काफिया कई बार मन में संशय पैदा कर गया आज थोड़ा संशय दूर हुआ ,

इस कामयाब शानदार गजल के लिए बधाई वंदना जी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 2, 2014 at 9:48am

खींचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे

मैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज

 बहुत खुबसूरत गजल आदरणीया वंदना जी

Comment by vandana on February 2, 2014 at 8:06am

आदरणीय वीनस सर , इस गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल को  आपका समर्थन मिल जाने से अभिभूत हूँ काफ़िया गलत न हो जाए इस बात की चिंता  थी|

सभी विद्वजनों से एक बात और जानना चाहती हूँ कि अगर इस प्रकार की ग़ज़ल में किसी शेर में उला में ज़ से खत्म होने वाला शब्द रहता तो क्या कोई दोष माना जाएगा जैसे- 

हम भला बढ़ते ही कैसे रहता है ये इम्तियाज़ 

"माँगने वाला गदा है सदका माँगे या खिराज" कृपया बताइयेगा

Comment by वीनस केसरी on February 2, 2014 at 1:11am

खींचकर फिर से लकीरें तय करो तुम दायरे

मैं निकल जाऊँगी माथे ओढ़कर रस्मो-रिवाज ............ जिंदाबाद जिंदाबाद

बेहद शानदार आला दर्जे की ग़ज़ल कही है ... इकबाल साहब की जमीन को छूना अपने आप में हौसले की बात है

Comment by vandana on February 1, 2014 at 9:27pm

आदरणीय गिरिराज सर बहुत२ आभार उत्साहवर्धन के लिए 

Comment by vandana on February 1, 2014 at 9:26pm

आदरणीया मीना जी आपकी पवित्र भावनाओं से मन प्रसन्न हुआ |

Comment by vandana on February 1, 2014 at 9:24pm

आदरणीया राजेश दी बहुत२ आभार मेरा हौसला बढाने के लिए 

फ़र्ज़-ए-जाँ को 212के रूप में लिया जा सकता है आदरणीय वीनस सर की पोस्ट में दर्दे दिल का उदाहरण है जिसे 212 या 222 गिने जा सकने पर सहमति जाहिर की गयी है 

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