दोहा-----------बसन्त
आम्र वृक्ष की डाल पर, कोयल छेड़े तान।
कूक कूक कर कूकती, बन बसंत की शान।।1
वन उपवन हर बाग में, तितली रंग विधान।
चंचल मन उदगार है, प्रीति-रीति परिधान।।2
क्षितिज प्रेम की नींव है, कमल भवन, अलि जान।
दिन भर गुन गुन गान है, सांझ ढले रस पान।।3
मन मन्दिर है प्रेम का, जिसमें रहते संत।
विविध रंग अनुबंध में, खिल कर बनों बसंत।।4
पुरवार्इ मन रास है, सकल बहार उजास।
किरनें जल से खेलती, मस्ती में मधुमास।।5
फूल-शूल के सम रहो, प्रेम परक व्यवहार।
कठिन समय में साथ रह, करें रक्ष उपकार।।6
धर्म ज्ञान संस्कार हो, समय शील संज्ञान।
क्षेत्र रीति से प्रीत पर, पहन सरल परिधान।।7
के0पी0 सत्यम मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आम्र वृक्ष की डाल पर, कोयल छेड़े तान।
कूक कूक कर कूकती, बन बसंत की शान।।1....
कूक-कूक कर कूकती .. का क्या मतलब ? कोयल कूकने के क्रम में कुछ और स्वर निकालती है क्या ? यदि हाँ, तो वह कूकना कत्तई नहीं कहलायेगा.
मन मन्दिर है प्रेम का, जिसमें रहते संत।
विविध रंग अनुबंध में, खिल कर बनों बसंत।।4
तुकान्तता की दृष्टि से यह दोहा कमज़ोर है. संत दोनों पदों में है. लेकिन पहले पद में संत के पहले ते आया है तो दूसरे पद में ब आया है. देख लें.
धर्म ज्ञान संस्कार हो, समय शील संज्ञान।
क्षेत्र रीति से प्रीत पर, पहन सरल परिधान।।7
क्षेत्र रीति से प्रीत पर... इसके क्या अर्थ हुए ? वैसे, जो प्रतीत हो रहा है, आप यह कहना चाहते हैं कि हर क्षेत्र की अपनी रीति होती है उसी के अनुसार परिधान पहनना चाहिए. किन्तु यह छंद में स्पष्ट नहीं हो रहा है.
बाकी के दोहों समुचित हैं.
शुभेच्छाएँ
आ0 शिज्जू भार्इ आपका बहुत-बहुत हार्दिक आभार। सादर,
आदरणीय केवलजी बहुत अच्छी दोहावली हुई है बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें
सादर,
आ0 राम शिरोमणि भार्इ जी , अरून अनन्त भार्इ जी , नीरज भार्इ जी , भण्डारी भार्इ जी एवं आदरणीया कुन्ती मुखर्जी जी आप सभी का हार्दिक आभार। सादर,
बहुत सुन्दर दोहे
आदरणीय केवल भाई , सभी दोहे लाजवाब रचे हैं , बहुत बहुत बधाई ॥
केवल भाई आपके दोहे ने मन मुग्ध कर दिया बहुत बहुत शुभकामनएँ
आदरणीय केवल भाई जी सभी दोहे बहुत ही सुन्दर रचे हैं आपने आपको बहुत बहुत बधाई.
बहुत ही सुन्दर दोहे रचे है आपने आदरणीय भाई केवल जी .... बहुत बहुत बधाई आपको
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