बहर - 2122, 2122, 2122, 212
प्रेम का मै हू पुजारी, प्रेम मेरा आन है ।
प्रेम का भूखा खुदा भी, प्रेम ही भगवान है ।।
वासना से तो परे यह, शुद्ध पावन गंग है ।
जीव में जीवन भरे यह, प्रेम से ही प्राण है ।।
पुत्र करते प्रेम मां से, औ पिता पु़त्री सदा ।
नींव नातो का यही फिर, प्रेम क्यो अनुदान है ।।
बालपन से है मिले जो, प्रेम तो लाचार है ।
है युवा की क्रांति देखो, प्रेम आलीशान है ।।
गोद में तुम तो रहे जब , मां पिता कैसे गढ़े ।
हो गये जो तुम बड़े फिर, क्यों भला परशान है ।।
वो सुहाने देख सपने, हैं किये तुम को बड़े ।
पूर्ण हो कैसे भला जब, स्वप्न ही अभिमान है ।।
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मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रमेश जी ..इस ग़ज़ल पर मेरी तरफ से तहे दिल बधायी स्वीकार करें ..सादर
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