मंदिर मस्जिद द्वार
बैठे कितने लोग
लिये कटोरा हाथ
शूल चुभाते अपने बदन
घाव दिखाते आते जाते
पैदा करते एक सिहरन
दया धर्म के दुहाई देते
देव प्रतिमा पूर्व दर्शन
मन के यक्ष प्रश्न
मिटे ना मन लोभ
कौन देते साथ
कितनी मजबूरी कितना यथार्थ
जरूरी कितना यह परिताप
है यह मानव सहयातार्थ
मिटे कैसे यह संताप
द्वार पहुॅचे निज हितार्थ
मांग तो वो भी रहा
पहुॅचा जो द्वार
टेक रहा है माथ
कौन भेजा उसे यहां पर
पैदा कैसे हुये ये हालात
भक्त सारे जन वहां पर
कोई देता दोष ईश्वर
वाह रे मानव करामात
अपने नाते
अपना परिवार
मिले दिल से साथ
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प्रथम प्रयास
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रमेश जी ...इस प्रथम प्रयास पार आपको शत शत बधाई ..सादर
आ0 रमेश जी आपके नवगीत के भाव बहुत अच्छे है , रचना के शिल्प पर आ0 शशि जी की प्रति क्रिया ध्यान देने योग्य है । इस सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।
नवगीत विधा में प्रथम प्रयास रहा, इसे मान देने के लिये आदरणीया शशिजीएवं मीना पाठकजी तथा आदरणीय मिश्राजी तथ गीतजी आप सभी का सादर आभार
बहुत सुन्दर नवगीत .. बधाई
बहुत सुंदर नवगीत रचा आपने आदरणीय रमेश जी, हार्दिक बधाई आपको
सुन्दर प्रयास है रमेश जी पर अभी यह नवगीत गेयता , मात्रिक और शिल्प की दृष्टी से थोडा समय और मान रहा है , कथ्य अच्छा लिया है आपने सुन्दर अभिव्यक्ति हेतु आपको हार्दिक बधाई
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