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आग पानी से जलाकर देख लेते ( गज़ल ) - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122    2122    2122

आँख में  उनकी  छिपा डर  देख लेते
जल गये  जो आप  वो घर  देख लेते


कर दिया अंधा सियासत ने सहज ही
आप वरना  खूँ  के  मंजर  देख  लेते


क्यों किसी  के  आसरे पर  आप बैठे
कुछ नया खुद आजमाकर देख लेते


बात करते हो बहुत तुम न्याय की जब
हाकिमों नित  क्यों कटे  सर देख लेते


खूब   सुनते   है  तेरी  जादूगरी   की
आग  पानी  से  जलाकर  देख  लेते


सोच लेता मैं  कि  जन्नत पा गया हूँ
कमसिनों  आगोश  में भर  देख लेते


आशिकी होती न तो हम आँख रखते
तब समय  के  हाथ  पत्थर  देख लेते


गर ‘मुसाफिर’ मुफलिसी में यार होता
आप  भी  तो  आजमाकर  देख  लेते

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 12, 2014 at 11:28pm

क्यों किसी  के  आसरे पर  आप बैठे
कुछ नया खुद आजमाकर देख लेत...........लाजवाबशेर

दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय लक्ष्मण जी


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 12, 2014 at 9:52pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , बहुत खूबसूरत गज़ल कही है , आपको दिली बधाइयाँ ॥ आदरणीय शिज्जू भाई की सलाह पर गौर ज़रूर करें , तीसरे और सातवें शे र मे तकाबुले रदीफ दोष है , ठीक कर लीजियेगा ॥

Comment by shashi purwar on February 12, 2014 at 9:50pm

बहुत सुन्दर गजल कही है आपने एक दो शेर में रफीद को देख लीजिये शिज्जू जी ने आपको कह ही दिया है , बधाई आपको सुन्दर गजल हेतु


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 12, 2014 at 7:08pm

आदरणीय लक्ष्मण जी बेहतरीन ग़ज़ल है बहुत बहुत बधाई। बस 2 अशआर में तकाबुले रदीफ है ज़रा देख लेंगे
सादर,

Comment by Shyam Narain Verma on February 12, 2014 at 12:40pm
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई ...
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 12, 2014 at 12:06pm
आदरणीय धामी जी! सुन्दर गजल कही है, बधाई

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