2122 2122 2122 212
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बचपने में चाँद को रोटी समझना भूल थी
कमसिनी में एक कमसिन से लिपटना भूल थी
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तात ने डाटा किताबें पढ़, मुहब्बत में न पड़
तात से इस बात पर मेरा झगड़ना भूल थी
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कोख में जब मात ने पाला न माना कुछ उसे
इक कली के द्वार पर माथा रगड़ना भूल थी
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मिट गया वो, पात ने कर ली हवा से प्रीत जब
बेखुदी में डाल से उसका बिछड़ना भूल थी
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लूटता इज्जत भ्रमर नित दोष उसको कौन दे
कह रहे सब क्यों कली का यूं सवरना भूल थी
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मढ़ दिया है दोष सर पे राहमारी देखिए
राह से उसकी ‘मुसाफिर’ का गुजरना भूल थी
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई सौरभ जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
एक अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई. कई शेर उद्धृत किये जा सकते हैं.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय भाई आशुतोष जी , ग़ज़ल की प्रशंसा और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .
मिट गया वो, पात ने कर ली हवा से प्रीत जब
बेखुदी में डाल से उसका बिछड़ना भूल थी..आदरणीय लक्ष्मण जी ..इस बेहतरीन ग़ज़ल के इस शेर के लिए बिशेष तौर से दाद कबूलें ..सादर
आदरणीय भाई बृजेश जी उत्साहवर्धन के लिए आभार .
बढ़िया ग़ज़ल हुई है! आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय भाई गिरिराज जी , आपका कहना उचित है ,इस पर मैंने अधिक मंथन भी नहीं किया था . इन त्रुटियों कि और ध्यान दिलाकर मार्गदर्शन के लिए हार्दिक धन्यवाद . राहमारी राहजनी के ही सन्दर्भ में प्रयोग किया गया है . अन्य जगहों पर संशोधन किया है उस बारे में राय देकर मार्गदर्शन करें .पुनः आभार .
आदरणीय आशीष भाई प्रशंसा के लिए आभार .
अच्छा प्रयास है आदरणीय लक्ष्मणजी बधाई आपको
आदरणीय लक्ष्मण भाई , शिल्प के लिहाज़ से ग़ज़ल अच्छी कही है , पर कुछ कमियाँ रह गई हैं , मेरी समझ मे --मतले मे , भर जवानी से जो आप कहना चाह रहे हैं वो बात कह नही पा रहे हैं ॥
लूटता इज्जत पतंगा दोष उसको कौन दे
कह रहे सब क्यों कली का यूं सवरना भूल थी ---- इस शे र मे बात तार्किक नहीं लग रही है ------- पतंगा और कली बात नही जम रही है , कली के साथ भौंरा या पतंगा के साथ शमा , क्या सही नही लगेगा ॥ कली और पतंगा बे मेल नही है क्या ?
राहमारी , ये शब्द सही है ग़लत नही कह सकता , मै रहजनी के अर्थ मे समझ पाया हूँ ॥
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