तसव्वुरात
रुँधा हुआ अब अजनबी-सा रिश्ता कि जैसे
फ़कीर की पुरानी मटमैली चादर में
जगह-जगह पर सूराख ...
हमारी कल ही की करी हुई बातें
आज -- चिटके हुए गिलास
के बिखरे हुए टुकड़ों-सी ...
कुछ भी तो नहीं रहा बाकी
ठहराने के लिए
पार्क के बैंच को अब
अपना बनाने के लिए
फिर क्यूँ फ़कत सुनते ही नाम
मैं तुम्हारा ... तुम मेरा ...
कि जैसे सीनों पर हमारे किसी ने
मार दिया हो पत्थर बड़ा-सा
फ़ासलों में खोई हुई
सो गई हैं कब से
थकी-थकी हुई मुस्कराहटें
डूबता है दिल बार-बार
और अब वही सनातन सवाल ...
जागती रहती हैं क्यूँ अभी भी
बेआवाज़ रुहें
किन मुलाकातों के इन्तज़ार में ?
ठहर जाते हैं क्यूँ बरसने के बाद
छ्लनी हुए बादल हमारी छतों पर
अभी भी माज़ी के तसव्वुरात लिए ?
हमारे टूटे-बिखरे आवारा ख़्वाबों के
अंधेरों-उजालों की
कोई उमीद, कोई हकीकत बाकी है शायद
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सदैव समान आपने रचना को मान दिया, आपका हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया अन्नपूर्णा जी।
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय कवि - राज बुन्देली जी।
हमारे टूटे-बिखरे आवारा ख़्वाबों के
अंधेरों-उजालों की
कोई उमीद, कोई हकीकत बाकी है शायद-------इसमें भी संतोष का झलक दिखती है | चलो इसी के सहारे सही ! सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई श्री विजय निकोरे जी
आदरणीय विजय सर:
आपकी इस रचना की भाषा में थोड़ा सा बदलाव दिखा मुझे लेकिन भावों की सघनता और बिम्बों का प्रस्तुतिकरण...क्या कहना!
रचना में प्रयुक्त बिम्ब मुझे बहुत सटीक लगे.
सनातन सवाल...कितने स्पर्शी हैं!
अभिव्यक्ति बड़ी अच्छी लगी आदरणीय...हर शब्द ने हृदय को छुआ.
हार्दिक बधाई इस सफ़ल रचना के लिए आपको.
सादर
बहुत ही सुंदर! आपको हार्दिक बधाई!
बहुत सुंदर व् गहन भाव, बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी
आदरणीय भाई विजय जी ,एक भावपूर्ण और सुगठित रचना के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय बड़े भाई , राख में अंगारों की सम्भावना तलाशती आपकी रचना बहुत अच्छी लगी ॥ आपको दिली बधाइयाँ ॥
आदरणीय विजय निकोर जी सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।
वाह् वाह सुन्दर रचना हेतु बधाई आपको
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