क़दमों में दे बहकी थिरकन
महकी नम सी चंचल सिहरन
बाँहों भर ले, रच कर साजिश
क्या सखि साजन? न सखि बारिश
हर पल उसने साथ निभाया
संग चले बन कर हम साया
रंग रसिक नें उमर लजाई
क्या सखि साजन? न सखि डाई
चाहे मीठे चाहे खारे
राज़ पता हैं उसको सारे
खोल न डाले राज़, हाय री !
क्या सखि साजन? न सखि डायरी
उसने सारे बंध सँजोए
अंक समेटे प्रेम पिरोए
ज़िंदा है यादों से हरदम
क्या सखि साजन? न सखि एल्बम
आँसू देखे, झट गल जाए
रख लूँ उसको नयन बसाए
रूप निखारे कंचन कंचन
क्या सखि साजन? न सखि अंजन
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया डॉ प्राची जी एक से बढ़कर एक कह मुकरियाँ ... मन भावन ...बधाई
भ्रमर ५
आ० डॉ० आशुतोष मिश्रा जी
कह मुकरियाँ की प्रस्तुति आपको पसंद आयी यह जान बहुत खुशी हुई ...
सराहना के लिए सादर धन्यवाद
आ० अखिलेश श्रीवास्तव जी
कहमुकरियाँ आपको पसंद आयीं यह जान अच्छा लगा ... लेकिन भाई जी ये विधा किसी भी तरह पहेली के समकक्ष नहीं... क्योंकि पहेली कभी उत्तर अपने में नहीं समेटे होती , साथ ही कह मुकरियाँ सिर्फ दो सखियों की बातचीत को अभिव्यक्त करती हैं जिसमें एक सहेली बद्ख़याली में (या अपनी ही धुन में ) अपने प्रिय के बारे में कुछ बता जाती है , और दूसरी सखि के पूछने पर मुकर जाती है...कि नहीं मैं तो किसी और चीज़ के बारे में बात कर रही थी.
और ये कह्मुकरियाँ यदि आप बच्चों के समूह में पहेली की तरह खेली जा सकने की विधा समझते हैं तो ये बहुत ही आश्चर्य जनक है क्योंकि निश्चय ही कह्मुकारियों की विषयवस्तु व प्रस्तुतीकरण का तरीका बच्चों के लिए तो नहीं ही है.
सादर.
आदरणीया प्राची जी ..आपके बैबिध्य पूर्ण साहित्य श्रजन के एक और पहलू से रूबरू होने का मौका मिला ..बहुत ही शानदार कह्मुकरियाँ ..सभी एक से बढाकर एक .तहे दिल बधाई स्वीकर करें सादर
आदरणीय मुख्य प्रबंधक महोदय
कह मुकरी विधा पर यह प्रस्तुति आपको पसंद आयी और आपकी भरपूर सराहना मिली... यह अनुमोदन इस प्रयास के प्रति आश्वस्ति दे रहा है
आपका हार्दिक धन्यवाद
सादर.
कह्मुकरियाँ आपको पसंद आयीं ,जान मुझे बहुत अच्छा लगा ...सादर धन्यवाद आदरणीया राजेश कुमारी जी
कहमुकरियों तक दोबारा आने के लिए धन्यवाद आदरणीया कल्पना जी, आ० अशोक कुमार रक्ताले जी
सादर.
आदरणीया प्राची जी, कहमुकरी विधा पर बहुत ही जबरदस्त पकड़ बनी है, सभी कहमुकारियां एक से बढ़कर एक हुई हैं, अंतिम पक्ति से पूर्व तक यही भान होता है कि बात साजन की हो रही है और यही इसकी खूबसूरती भी है, बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर।
चाहे मीठे चाहे खारे
राज़ पता हैं उसको सारे
खोल न डाले राज़, हाय री !
क्या सखि साजन? न सखि डायरी ............वाह ! बहुत सुन्दर कह मुकरी हो गया है आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी.पुनः एक बार सभी लाजवाब कह-मुकरी छंदों के लिए सादर बधाई स्वीकारें.
आदरणीय योगराज भाई,
अन्यथा न लें। मैं सच कह रहा हूँ , बचपन में हम बच्चों से दादी , नानी और माँ भी समूह में पहेली के रूप में कविता की कुछ पंक्तियाँ कहती जिसका एक ही उत्तर होता था, । हाँ उसे मुकरियाँ नहीं , हम कुछ और कहते थे । प्रायः यह रात्रि भोजन के पूर्व खेला जाता था। इसी उद्देश्य से मैंने कुछ मुकरियों की कापी भी की है ।
............. सादर
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