सात दोहे – '' रिश्ते ''
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नाराजी जो है कहीं , मिल के कर लो बात
खामोशी देती रही , हर रिश्ते को मात
रिश्तों को भी चाहिये , इन्जन जैसे तेल
बिना तेल देखे बहुत , झटके खाते मेल
तेरा घोड़ा तेज़ है , माना मेरा सुस्त
देखो रिश्ता हो गया , पहले जैसे चुस्त
तू माने खुद को बड़ा , तो मैं भी हूँ शेर
बढ़ने में अब दूरियाँ , नहीं लगेगी देर
आपस की कमियाँ भरें , यारी की ये रीत
यही बढ़ाती है सदा , हर नाते में प्रीत
हाथ मिला के कब हुआ, मन से मन का मेल
ये भावों की बात है , ये अन्दर का खेल
मैं जैसा भी हूँ अभी , जो कर ले स्वीकार
उसकी सारी ग़लतियों, से मुझको भी प्यार
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , दोहों की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥
बहुत सुन्दर दोहे आदरणीय और बहुत२ बधाई इस माह की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में इस रचना के चयनित होने पर
हाथ मिला के कब हुआ, मन से मन का मेल
ये भावों की बात है , ये अन्दर का खेल
आदरणीय गिरिराज जी खूबसूरत विचारों से सुसज्जित उत्तम दोहे ....
सुंदर प्रस्तुति हेतु बहुत बधाई ...
रिश्तों के लगाव और तनाव पर अच्छा प्रकाश डाला है आपने। बधाई, आदरणीय गिरिराज जी।
आदरणीया प्राची जी , दोहों आपका अनुमोदन मिला तो सच ! बहुत खुशी हुई ॥ आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय बड़े भाई , दोहों की सराहना के लिये आपका आभार ॥
रिश्तों और दोस्ती में आपसी अपनत्व के तार जिन अहसासों से जुड़े होते हैं उनकी नजाकत पर और अर्थ पर प्रकाश डालते सुन्दर दोहे रचे हैं आ० गिरिराज भंडारी जी
हार्दिक बधाई
पारिवारिक ,सामाजिक एवं आपसी रिश्तों को लेकर लिखे गये सुंदर दोहों की हार्दिक बधाई छोटे भाई
आदरणीय लक्ष्मण भाई , दोहों की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय जितेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया ॥
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