2122 2122 212
फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
(बहरे रमल मुसद्दस महजूफ)
वृत्ति जग की क्लिष्ट सी होने लगी
सोच सारी लिजलिजी होने लगी
भीड़ है पर सब अकेले दिख रहे
भावनाओं में कमी होने लगी
चाहना में बजबजाती देह भर
व्यंजना यूँ प्रेम की होने लगी
धर्म के जब मायने बदले गए
नीति सारी आसुरी होने लगी
सूखती संवेदना घर-घर दिखे
चेतना भी ठूँठ सी होने लगी
ढूँढ अब लाएँ कहाँ से हम किरण
रात सारी मावसी होने लगी
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अनिल भाई आपका हार्दिक आभार!
धर्म के जब मायने बदले गए नीति सारी आसुरी होने लगी
सूखती संवेदना घर-घर दिखे चेतना भी ठूँठ सी होने लगी...............बहुत खूब सर...............
आदरणीया राजेश कुमारी जी आपका हार्दिक आभार! माहिरी नहीं, अभी तो प्राथमिक कक्षा का ही विद्यार्थी हूँ! आप लोगों की देखा-देखी कुछ कलम चल गयी इस बार.
सादर!
आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!
सूखती संवेदना घर-घर दिखे
चेतना भी ठूँठ सी होने लगी-----वाह वाह कमाल का शेर----
,छंद कविता नव सृजन के साथ में ,अब ग़ज़ल में माहिरी होने लगी
बहुत अच्छी ग़ज़ल शानदार अशआर लिखने लगे अब ब्रजेश जी बधाई के साथ मेरी शुभकामनायें भी.
आदरणीय विजय निकोर जी, आपका बहुत-बहुत आभार!
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
अच्छी गज़ल के लिए बधाई, आदरणीय बृजेश जी।
आदरणीय बृजेश भाई , बहुत खूब सूरत ग़ज़ल कही है , आपको दिली मुबारक़ बाद ॥ आदरणीय , सभी शे र बहुत उम्दा कहे हैं ॥ पूरी ग़ज़ल के लिये ढेरों दाद ॥
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