तेलंगाना पे भिड़े, अपनी मुट्ठी तान।
अपने भारत देश की, लगी दाँव पे आन।।
कोई तोड़े काँच को, पत्र लिया जो छीन।
आगे पीछे भैंस के, बजा रहे हैं बीन।।
मिर्चें लेकर हाथ में, करे आँख में वार।
मानवता इस हाल पे, अश्रु बहाये चार।।
हिस्सा जाता देख कर, हुये क्रोध से लाल।
बरसीं गंदी गालियाँ, ये संसद का हाल।।
चढ़ा करेला नीम पर, अपनी छाती ठोक।
शक्ति संग सत्ता मिली, रोक सके तो रोक।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय बैद्यनाथ भाई आपका हार्दिक आभार, सनातनी छंद दोहा ग़ज़ल से बहुत ज्यादा अलग नही है इसमें भी गागर मे सागर वाली बात है ग़ज़ल की ही तरह :-))
आदरणीय गिरिराज सर आपका हार्दिक आभार
आदरणीय सौरभ सर आपका हार्दिक आभार अब बातें काफी कुछ साफ हो गई है
छंद शास्त्र की मेरी जानकारी कम है ! ..आपकी रचना की भावनात्मक पकड़ बेजोड़ है !...दोहे ..बहुत कुछ कह रहे हैं ! शिज्जू साहब , शायद आपकी इस पहल से ..मैं भी दोहे लिखने में रूचि लेने लगूं ...! बहरहाल ..दिली मुबारकबाद स्वीकार करें ! नमन :)
भाई शिज्जू, आपने मुझे सम्बोधित कर गौरवान्वित किया है. इसके लिए हार्दिक धन्यवाद.
कोई तोड़े काँच को, पत्र लिया जो छीन।
आगे पीछे भैंस के, बजा रहे हैं बीन।।
हिस्सा जाता देख कर, हुये क्रोध से लाल।
बरसीं गंदी गालियाँ, ये संसद का हाल।।
चढ़ा करेला नीम पर, अपनी छाती ठोक।
शक्ति संग सत्ता मिली, रोक सके तो रोक।।
उपरोक्त दोहों की तार्किकता और कथन पर आपको हृदय से बधाई.
अन्य दोहों केशिल्प परकुछ नहीं कहना. बस तार्किकता या कथन पर ही चर्चा हो सकती.
यह अवस्था किसी सीखते रचनाकार के लिए ऐडवांस स्टेज है.
जैसे, पहले दोहे में तेलंगाना की बात पर भारत की आन का ही दाँव पर लग जाना कुछ विशिष्ट नहीं लगा. भारत की आन यदि दाँव पर लग रही है तो कारण अत्यंत क्लिष्ट होना चाहिये. आप समझ रहे होंगे मैं क्या कहना चाह रहा हूँ.
तीसरे दोहे में देखिये. वार आँख में होने की जगह वार आँख पर हो तो बात अधिक सुगढ़ होगी. फिर, संसद के अंदर जो कुछ अतुकान्त होता दीख रहा हो तो मानवता से अधिक राजनीति द्वारा चार आँसू बहाना अधिक तार्किक प्रतीत होता है. मात्रा में भी परिवर्तन नहीं होता.
विश्वास है, मैं अपनी बातें प्रस्तुत कर पाया. वैसे यह मेरा सोचना मात्र है. हो सकता है आप इससे सहमत न हों.
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ सर कुछ संशोधन किया है आपको मार्गदर्शन की अपेक्षा है
हाँ, शिज्जू भाई, पर का पे ही नहीं बल्कि ऐसे कई शब्द हैं जो नज़्मों या अन्य विधाओं में तो आम-फहम हैं, लेकिन छंदों की प्रवृति में वे नहीं समरस नहीं हो पाते. उनका मूल रूप ही मान्य हुआ करता है. जैसे, क्यों का क्यूँ, यों का यूँ आदि अच्छे नहीं लगते.
लेकिन ये सारा कुछ छंद की प्रकृति पर भी निर्भर करता है कि छंद (यहाँ दोहा पढ़ें) की भाषा और उसका वातावरण क्या है.
शुभ-शुभ
आपकी विस्तृत टिप्पणियों के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया मुझे बेसब्री से आपका इंतज़ार था। कुछ शब्दों के प्रयोग को लेकर मन बहुत संशय रहता है। आपके मार्ग दर्शन के लिये आपका पुनः आभार।
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