नवगीत
जनसंख्या औ
मंहगार्इ बहने,
लम्बी गर्दन में
पहने गहने।।
तंत्र यंत्र सम
चुप्पी साधें,
स्रोत आयकर
रिश्वत मांगें।
शिवा-सिकन्दर
प्याज हुर्इ अब,
साड़ी पर साड़ी है पहने।।1
शासक वर की
पहुंच बड़ी है,
कन्या धन की
होड़ लगी है।
सैलाबों में
त्रस्त हुए शिव,
बेबस जन के टूटे टखने।।2
चोरी-दंगा
व्यभिचारों की,
उत्साहित
बारात सजी है।
कालाधन
बन्दूक बैण्ड में
नृत्य करे अगुआ क्या कहने।।3
चोर - चोर
मौसेरे भार्इं,
हर आफत में
गले भिटार्इ।
द्वार चार पर
उड़े परिन्दे,
गिरते आंसूं बनकर झरने।।4
के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित
,
Comment
आ0 सौरभ सर जी, सादर प्रणाम! इस नवगीत में मैने अपनी सोच भर से ही बिम्बों को उकेरा है, अब कहां तक सही है, यह तो आप जैसे मनीषियों से ही गुण दोष अथवा औचित्य की महत्ता का ज्ञान सम्भव हो पाता है। आपकी अमूल्य टिप्पणी के लिए तहेदिल से बहुत-बहुत आभार। सादर,
मैं गीत पढ़ कर तनिक उलझ गया. कथ्य से नहीं. जैसा कि अक्सर होता है. लोग कह देते हैं कि रचना समझ में ही नहीं आयी. मैं उलझा हूँ आपकी प्रस्तुति में अपनाये गये बिम्बों की हठात बन पड़ती उपस्थिति को लेकर. जो बिना तारतम्यता के बन्द में जड़े हैं.
आप मेरे कहे को अन्यथा लें, तो मैं अपने शब्द वापस लेता हूँ.
शुभेच्छाएँ.
आ0 शिज्जूभार्इ जी भण्डारी भार्इजी व मनोज भार्इजी, बिलम्ब के क्षमा! नवगीत की सराहना के लिए आप सभी का हार्दिक आभार। सादर, आप सभी को सपरिवार होलिकोत्सव की शुभकामनाओं सहित हार्दिक बधार्इयां। सादर
बहुत बढ़िया आदरणीय केवल प्रसादजी बेहतरीन सामयिक विषय पर आपने बेहतरीन नवगीत लिखा है। रचना का प्रवाह प्रस्तुति ने बस मन मोह लिया बहुत बहुत बधाई आपको
अरे वाह क्या बात है भाई..एक बार पढ़ा, दो बार पढ़ा, चार बार पढ़ा..अब सहेज लिया है.. विशेषकर
चोरी-दंगा
व्यभिचारों की,
उत्साहित
बारात सजी है।
कालाधन
बन्दूक बैण्ड में
नृत्य करे अगुआ क्या कहने।...अब आपने तो सब कह ही दिया है..इसके बाद केवल एक ही चीज शेष रहती है..और वह है..बोलो सियावर रामचंद्र की जय...बहुत बहुत बधाइयां
आदरणीय केवल भाई , वर्तमान को परिभाषित करती आपके सुन्दर नव गीत के लिये बधाइयाँ ॥
आ0 अन्नपूर्णा जी, आपका बहुत-बहुत हार्दिक आभार। सादर
चोर - चोर
मौसेरे भार्इं,
हर आफत में
गले भिटार्इ।
द्वार चार पर
उड़े परिन्दे,
बहुत बढ़िया , आ0 केवल भाई जी ।
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