रंग में भीगी हवा,
चंचल चतुर इक नार सी,
गाने लगी है लोरियाँ।
ऋतु बसंती, पाश फैला कर खड़ी
फागुन प्रिया।
सकल जल-थल, नभचरों को खूब
सम्मोहित किया।
भंग में डूबी फिजा ने, खोल दीं मनुहार की,
भावों भरी बहु बोरियाँ।
मद भरे सागर में सारा जग,
लगा है डूबने।
भू पे उतरा गगन, हर ज़र्रा
लगा है झूमने।
बाँचने बैठे छबीले, गीत छंदों की चुटीली,
प्रेम रस की पोथियाँ।
दिख रहे कोयल, पपीहे, मोर सब
इक झुंड में।
फूल, भँवरे, तितलियाँ, लहरा रहे
रस कुंड में।
मादलों पर थाप मंगल, हो रहा धरती पे दंगल,
पाँव पायल बाँध लय पर,
पग जमातीं गोरियाँ।
वेब पर अप्रकाशित व मौलिक
मेरे नवगीत संग्रह "हौसलों के पंख "में संग्रहीत
Comment
मन झूम गया आदरणीया कल्पना जी. कहन की शैली भी जमी है.
हार्दिक बधाइयाँ.
आदरणीय ओमप्रकाश जी, वंदना जी, सावित्री जी, प्रोत्साहित करने के लिए आप सबका हृदय से धन्यवाद
कल्पना जी , आप ने बहुत सुन्दर नवगीत लिखा है . भाव अच्छे है . प्रस्तुतीकरण सराहनीय है .
आ० कल्पना जी ,वसंत के मादक रंग में डूबी सुन्दर रचना! बधाई हो।
वाह आदरणीया मन फागुन के रंगों से सराबोर हो रहा है
सरिता जी, सराहना पूर्ण शब्दों के लिए आपका मन से धन्यवाद/सादर
आदरणीय लक्ष्मण जी, बहुत बहुत धन्यवाद आपका
आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी, आपकी प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी से मन को अपर हर्ष हुआ। आपका हार्दिक आभार
आदरणीय शिज्जु जी, प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी के लिए आपका हृदय से धन्यवाद
आदरणीय जितेंद्र जी गीत पर सुंदर प्रतिक्रिया देने के लिए हार्दिक धन्यवाद
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