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आठ सगण

(१)

जब से यह देश अजाद भयो, तब से हर ओर जहालत है |

अपना सब देइ दियो जग को, अबहूँ यह नागन पालत है |

घनघोर घटा, चमके बिजली परिधान सुखावन डालत है |

सब ओर भयानक दृश्य दिखे तज हीरक कांच निकालत है |

(२)

धन भाग धरो तन भारत में, तप युक्त मही अति पावन है |

सत मारग हो, शुभ नीति चलो, अरु प्रेम सुपाठ सिखावन है |

रितु आइ रही, रितु जाइ रही, नदियाँ रसवंत लुभावन है |

जग अंध भले निज सारथ में पर से यह प्रीत निभावन है |

.

मौलिक और अप्रकाशित  

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 26, 2014 at 6:57pm

इनके मन में कुछ शब्द उठे हर शब्द उठा गढ़ पंक्ति लिया .. :-))

पद्य-प्रयास के लिए धन्यवाद.  आगे एक सुगढ़ रचना की प्रतीक्षा रहेगी.

Comment by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 11, 2014 at 11:07pm

रचना को पढ़ने और उसे सराहने के लिए आपका कोटिशः आभार आदरणीय गिरिराज सर और सूबे सिंह सुजान भाई..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 11, 2014 at 9:26pm

बहुत खूब , भाई मनोज मयंक , बहुत  बहुत बधाई  आपको ॥

Comment by सूबे सिंह सुजान on March 10, 2014 at 11:07pm

बहुत सुन्दर लिखा है भाी बधाई

कृपया ध्यान दे...

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"हार्दिक धन्यवाद  आभार आदरणीय अशोक भाईजी, "
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"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। चित्रानुरूप सुंदर छंद हुए हैं हार्दिक बधाई।"
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"हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभाजी "
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"वाह..बहुत ही सुंदर भाव,वाचन में सुन्दर प्रवाह..बहुत बधाई इस सृजन पर आदरणीय अशोक जी"
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