दो परिंदे थे | दोनों में बड़ा प्रेम था | दोनों साथ ही रहा करते थे | जहां भी जाते एक साथ | जो भी खाते मिल बाँट कर खाते | दोनों ने एक ही वृक्ष की एक ही डाली पर एक ही प्रकार के तिनकों से एक साथ घरौंदा बनाया | एक दिन एक परिंदा बीमार पड़ गया | दूसरे ने भी खाना पीना छोड़ दिया किन्तु ऐसा कब तक चल सकता था ? स्वस्य्घ परिंदे ने सोचा मेरा भाई कमजोर हो गया है | कुछ दाने अपने चोंच में भरकर लेता आऊँ, हो सकता है मेरा भाई ठीक हो जाय? वह दाना इकठ्ठा करने चला गया | थोड़ी देर में एक और परिंदा उस पेड़ पर आया | उसने…
ContinueAdded by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 13, 2014 at 11:02pm — 6 Comments
आठ सगण
(१)
जब से यह देश अजाद भयो, तब से हर ओर जहालत है |
अपना सब देइ दियो जग को, अबहूँ यह नागन पालत है |
घनघोर घटा, चमके बिजली परिधान सुखावन डालत है |
सब ओर भयानक दृश्य दिखे तज हीरक कांच निकालत है |
(२)
धन भाग धरो तन भारत में, तप युक्त मही अति पावन है |
सत मारग हो, शुभ नीति चलो, अरु प्रेम सुपाठ सिखावन है |
रितु आइ रही, रितु जाइ रही, नदियाँ रसवंत लुभावन है |
जग अंध भले निज सारथ में पर से यह प्रीत निभावन है…
ContinueAdded by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 7, 2014 at 10:00am — 4 Comments
संविधान की ले शपथ, उसको तोडनहार |
कछु पापी नेता भये, अनुदिन भ्रष्टाचार ||
जोड़ तोड़ के गणित में, लोकतंत्र भकुआय |
हर चुनाव समरूप है, गया देश कठुआय ||
अथ श्री निर्वाचन चालीसा | जिसने भी जनता को पीसा ||१||
वह नेता है चतुर सुजाना | लोकतंत्र में जाना माना ||२||
धन जन बल युत बाहुबली हो | हवा बहाए बिना चली हो ||३||
झूठी शपथ मातु पितु बेटा | सब को अकवारी भर भेटा ||४||
रसमय चिकनी चुपड़ी बातें | मुख में राम बगल में घातें ||५||
अपना ही घर आप उजाडू | झंडे पर…
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 6, 2014 at 10:29pm — 8 Comments
त्रिभंगी - १०, ८, ८, ६ (जगण पृथक शब्द के रूप में प्रयुक्त नहीं हो सकता)
बैठी पदमासन, सब पर शासन, वरद अभय कर, मुसकाती |
वीणा रव सुन्दर, उर के अंदर, सब कुछ झंकृत, कर जाती ||
आशीष दयामयि, हे करुणामयि, सतत विमल हो, मति मेरी |
कोटिक रवि जागे, अघ तम भागे, जलधारा जनु, गति मेरी ||
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 4, 2014 at 5:00pm — 10 Comments
भाड़ में गए हरामजादे समाजवाले...राघव ने जेल की दीवारों पर एक जोरदार मुक्का मारा| उसका पोर पोर काँटा बन चुका था| वह बाहर से भी जख्मी था और भीतर से भी| वह जहर खा लेना चाहता था, लेकिन इस कालकोठरी में उसे वह भी प्राप्त नहीं हो सकता था| उसे आज तक मिला ही क्या? उसकी आँखे रोते रोते सूज चुकी थी, अब उनमें आंसू भी नहीं बन रहे थे| उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह अपने शरीर के बाहर हवा में तैर रहा हो| एक ही पल में अगणित विचार कौंध उठते| वह जड़ भी था, चलायमान भी| उसके अंदर महाभारत का युद्ध चल रहा था, वह…
ContinueAdded by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 2, 2014 at 11:27pm — 15 Comments
कुछ नहीं बिगाड़ सकी,
मेरा,
सिकंदर की तलवार|
हाँ,झेला है मैंने –
सेल्युकस की रार|
नादिरशाही तलवारों की…
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on April 5, 2012 at 9:30pm — 9 Comments
पुनः लुंठन हो रहा चुपचाप हैं हम|
अक्षमाला पर मरण के जाप हैं हम|
चिर विकेन्द्रीकृत हुई केन्द्रीय सत्ता,
नव्य युग, प्राचीनता के सांप हैं हम|
…
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on April 4, 2012 at 10:30am — 10 Comments
कालबाह्य हो गयी अचानक सिर से वंचित चोटी है|
अब तो सारी ही रचनाएं कंप्यूटर पर होती है||
मृतिका पात्रों का सोंधापन,
स्नेहपूर्ण परसन,प्रक्षालन|
मधुमय मंगल गीतों…
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on April 3, 2012 at 10:30pm — 8 Comments
दीनो धरम,ईमान के हाइल हैं यहाँ पर|
मैं इल्म किसे दूँ,सभी जाहिल हैं यहाँ पर|
.
नादान बशर रो रहा जिस शख्स के आगे,
वह शख्स कहीं और है,गाफिल है यहाँ…
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on April 2, 2012 at 10:30pm — 14 Comments
अरे शिकवा नहीं कोई,शिकायत क्या करू तुझसे?
वली है तू सनम मेरा,इबादत की इजाजत दे||१||
बहुत अब देख ली दुनिया,नहीं अब देखना कुछ…
ContinueAdded by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 14, 2012 at 8:30am — 19 Comments
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 13, 2012 at 11:18pm — 6 Comments
पिछली बातों को दुहराना बहुत जरूरी है|
कल को सब बातें बतलाना बहुत जरूरी है|
बहुत जरूरी है अपनी सब भूलों को लिखते जाना,
आशाओं के दीप जलाना बहुत जरूरी है|…
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 11, 2012 at 6:33pm — 11 Comments
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