त्रिभंगी - १०, ८, ८, ६ (जगण पृथक शब्द के रूप में प्रयुक्त नहीं हो सकता)
बैठी पदमासन, सब पर शासन, वरद अभय कर, मुसकाती |
वीणा रव सुन्दर, उर के अंदर, सब कुछ झंकृत, कर जाती ||
आशीष दयामयि, हे करुणामयि, सतत विमल हो, मति मेरी |
कोटिक रवि जागे, अघ तम भागे, जलधारा जनु, गति मेरी ||
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत अच्छे भाईजी. बहुत अच्छे. शिल्प भाव और प्रस्तुति के लिहाज से पठनीय रचना. आप पर शारदे की कृपा रहे.
शुभ-शुभ
आदरणीय गिरिराज सर और आदरणीय केवल प्रसाद जी..रचना पर समय देने और उसे सराहने के लिए कोटिशः आभार..
आ0 मनोज भाई जी, बहुत ही सुन्दर प्रयास । हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीय मनोज भाई , छंद पढ के आनन्द आ गया , बहुत बधाइयाँ ॥ शिल्प ज्ञान मुझे नही है , विद्व जन ही बता पायेंगे ॥
कोटिशः आभार..विवेक भाई..आदरणीय प्रदीप सर...आदरणीया राजेश जी..मुझे इस बात का भान था की कहीं न कहीं कमी अवश्य रह गयी..मुझे भी पदमासन के बाद पावन का होना खटक रहा था.अब यह बात साफ़ हो गयी..आपका कोटिशः आभार..अब मैं और बेहतर कर सकता हूँ..ह्रदय से आभारी
मनोज कुमार सिंह जी त्रिभंगी छंद पर अनुपम प्रयास किया है आपने नीचे की तीनो पंक्तियों में तुकांतता भी भली प्रकार निबाही ,किन्तु प्रथम पंक्ति में पद्मासन और पावन की तुकांतता ठीक नहीं बैठ रही बाकी आपका प्रयास काबिले तारीफ है बहुत सुन्दर छंद निकला है आपकी कलम से बहुत- बहुत बधाई.
सुन्दर प्रस्तुति
सादर बधाई
waah waah kya baat hai, jai maa saraswati :)
कविता को पढ़ने और सराहने हेतु कोटिशः आभार आदरणीय अखिलेश भाई..कृपया कथ्य और शिल्प पर भी गौर फरमाए..कैसा बना है?
आदरणीय मनोज भाई,
माँ सरस्वतीजी की सुंदर वंदना त्रिभंगी में , हार्दिक बधाई।
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