2122- 2122- 2122
दिल से निकले वो तराना चाहता हूँ
इक मसर्रत का फसाना चाहता हूँ (मसर्रत =खुशी)
देख कर मुझको छलक जायें न आँसू
तेरी खातिर मुस्कुराना चाहता हूँ
जी लिया मैंने बहुत बचते हुये अब
मुश्किलों को आजमाना चाहता हूँ
बेझिझक मै पत्थरों के शह्र जाके
उनको आईना दिखाना चाहता हूँ
सुब्ह की चुभती हुई इस धूप को मैं
अपनी आँखों से हटाना चाहता हूँ
हर ख़लिश को ओढ़कर कुछ देर को मैं
ख़्वाब में ही डूब जाना चाहता हूँ
दिन दिखाये थे मुझे हालात ने जो
मैं तुम्हें उससे बचाना चाहता हूँ
चल सको आराम से तुम सो तुम्हारे
रास्ते आसाँ बनाना चाहता हूँ
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
भाई शिज्जूजी, इस उम्दा ग़ज़ल के लिए दाद कुबूल कीजिये.
बधाई
आदरणीया डॉ प्राची जी रचना की सराहना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
जी लिया मैंने बहुत बचते हुये अब
मुश्किलों को आजमाना चाहता हूँ
हर ख़लिश को ओढ़कर कुछ देर को मैं
ख़्वाब में ही डूब जाना चाहता हूँ
इन दो शेरों के साथ ही और भी कई अशआर बहुत करीब लगे
हार्दिक बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए आ० शिज्जू जी
आदरणीया वंदना जी रचना की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार
आदरणीय वीनस भाई आपका हार्दिक आभार
शिज्जू साहब ग़ज़ल के लिए ढेरो दाद
अरूज़ के हवाले से भी ग़ज़ल ने बेहद मुतासिर किया
हर ख़लिश को ओढ़कर कुछ देर को मैं
ख़्वाब में ही डूब जाना चाहता हूँ
दिन दिखाये थे मुझे हालात ने जो
मैं तुम्हें उससे बचाना चाहता हूँ
चल सको आराम से तुम सो तुम्हारे
रास्ते आसाँ बनाना चाहता हूँ
बहुत बढ़िया अशआर आदरणीय
आदरणीया शशिजी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीया राजेश दीदी रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
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