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तेरी खातिर मुस्कुराना चाहता हूँ- ग़ज़ल

2122- 2122- 2122

दिल से निकले वो तराना चाहता हूँ

इक मसर्रत का फसाना चाहता हूँ                       (मसर्रत =खुशी)

 

देख कर मुझको छलक जायें न आँसू

तेरी खातिर मुस्कुराना चाहता हूँ

 

जी लिया मैंने बहुत बचते हुये अब

मुश्किलों को आजमाना चाहता हूँ

 

बेझिझक मै पत्थरों के शह्र जाके

उनको आईना दिखाना चाहता हूँ

 

सुब्ह की चुभती हुई इस धूप को मैं

अपनी आँखों से हटाना चाहता हूँ

 

हर ख़लिश को ओढ़कर कुछ देर को मैं

ख़्वाब में ही डूब जाना चाहता हूँ

 

दिन दिखाये थे मुझे हालात ने जो

मैं तुम्हें उससे बचाना चाहता हूँ

 

चल सको आराम से तुम सो तुम्हारे

रास्ते आसाँ बनाना चाहता हूँ

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by गिरिराज भंडारी on March 22, 2014 at 10:04am

आ. शिज्जू भाई , बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ॥

Comment by Abhinav Arun on March 22, 2014 at 7:37am
उम्दा ग़ज़ल शिज्जू जी हर शेर लाजवाब , मुकम्मल शानदार ग़ज़ल , बधाई !!

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Comment by शिज्जु "शकूर" on March 22, 2014 at 7:26am

आदरणीय ओमप्रकाश जी सर्वप्रथम आपका आभार।
आप जिस शब्द की बात कर रहे हैं वो सुब्ह ही है जो कि उर्दू का शब्द है जिसे हिन्दी बोलचाल में सुबह कहा जाता है। मैंने शब्द को न तोड़ा है न मरोड़ा है बल्कि मूल रूप में ही प्रयोग किया है।


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Comment by शिज्जु "शकूर" on March 22, 2014 at 7:21am

आदरणीय केवल सर आपका हार्दिक आभार।  इस्लाह के लिये भी आपका आभारी हूँ


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Comment by शिज्जु "शकूर" on March 22, 2014 at 7:18am

आदरणीया सरिता जी आपका हार्दिक आभार 

Comment by Omprakash Kshatriya on March 22, 2014 at 7:13am

भाई  प्रणाम .

एक शंका का समाधान चाहता हूँ . सुब्ह ------- की तरह दुसरे शब्दों को तोड़ मरोड़ कर ग़ज़ल में  लिख सकते है . वैसे तो आप की ग़ज़ल शानदार है . इस के लिए बधाई .

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 21, 2014 at 9:42pm

शिज्जू भाई जी, बहुत ही सुन्दर अश'आर हुए है।  बधाई स्वीकारें।  किन्तु अन्तिम शे'र में 'तुम' के बाद अर्धविराम लगा दें ताकि और स्पष्ट हो जाए। सादर,

Comment by Sarita Bhatia on March 21, 2014 at 8:45pm

लाजवाब गजल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय 

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