रह गयी कुछ है यही ग़र रह गयी
घर की अस्मत घर के बाहर रह गयी
ज़िन्दगी तक उसकी होकर रह गयी
अपने हिस्से की ये चादर रह गयी
वो मुझे बस याद आया चल दिया
शाम मेरी याद से तर रह गयी
तृप्ति ने बोला बकाया काम है
और तृष्णा घर बनाकर रह गयी
नाव जब डूबी तो बोला नाख़ुदा
थी कमी सूई बराबर रह गयी*
बन गई मेरी ग़ज़ल वो आ गया
कुछ खलिश फिर भी यहाँ पर रह गयी
भुवन निस्तेज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय गिरिराजजी, मैं इस ग़ज़ल पर बाद में आऊँगा. अभी आप और आ. भुवनजी के कोमेण्ट पर..
आदरणीय भुवन जी का वह मिसरा बह्र में है. वे और की कुल मात्रा २ ही ले रहे हैं.
ऐसा होता है. हो सकता है. इसीसे हम और को दो मात्रिक लेने के लिए औ’ कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं .
सादर
आदरणीय , आपने ग़ज़ल की मात्रा ग़लत ले ली है , ग़ज़ल 12 सही है ।
उनके आते, मै ग़ज़ल कह तो दिया , कर लीजिये , अगर मिसरा अच्छा लगे तो ॥ या जो आप अच्छा समझें ॥
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया.
आखरी मिसरे में 'भी' के वज्न में समस्या है, आपकी विद्वतापूर्ण दृष्टी प्रशंसनीय है,
सुधार करने की कोशिश करूंगा,
वैसे ये ग़ज़ल
२१२२ २१२२ २१२
बह्र पर कहने की कोशिश की है.
कृपया मार्गदर्शन जरी रखें...
आदरणीय भुवन भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही आपने , आपको दिली बधाइयाँ ॥
वो भी आया और ग़ज़ल भी बन गयी ---- ये मिसरा बेबह्र लग रहा है , वैसे आपने बह्र नही
आदरणीय ओम प्रकाश क्षत्रीय जी आपका आभारी हूँ, कृपया मार्ग दर्शन जरी रखें...
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