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जो भूखा रो रहा उसको नही रोटी खिलाते हैं
जो बुत हैं मौन मंदिर में उन्हें सब सर झुकाते हैं
जिकर होता है जिसका दोस्तों हर सांस में मेरी
मेरे दुश्मन का लेके नाम वो मेंहदी रचाते है
जहाँ भी चाहते दिल फेंकते आदत है ये उनकी
नजर जब हमसे मिलती है तो वो कितना लजाते हैं
सजाये थे गुलाबी पांखुरी से पथ मगर अब क्या
जो पल्लू झाड़ियों में खुद ही अब उलझाये जाते हैं
गुलाबों की भी किस्मत आशु तुमसे कितनी अच्छी है
हसी के हाथ चूमे और फिर गेसू सजाते हैं
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जो भूखा रो रहा उसको नही रोटी खिलाते हैं
जो बुत हैं मौन मंदिर में उन्हें सब सर झुकाते हैं.... बहुत खूब आ. आशुतोष जी हार्दिक बधाई आपको /सादर
बहुत सुंदर गजल कही आपने
जहाँ भी चाहते दिल फेंकते आदत है ये उनकी
नजर जब हमसे मिलती है तो वो कितना लजाते हैं
सजाये थे गुलाबी पांखुरी से पथ मगर अब क्या
जो पल्लू झाड़ियों में खुद ही अब उलझाये जाते हैं...........वाह! बहुत खूब . इन शेर पर विशेष बधाई आदरणीय डा. आशुतोष जी
सजाये थे गुलाबी पांखुरी से पथ मगर अब क्या
जो पल्लू झाड़ियों में खुद ही अब उलझाये जाते हैं | वाह, सुन्दर !
जो भूखा रो रहा उसको नही रोटी खिलाते हैं
जो बुत हैं मौन मंदिर में उन्हें सब सर झुकाते हैं----------------------सब से बढ़िया शेर . बधाई
आदरणीया वंदना जी ..आपके शब्दों से मुझे सदैव उर्जा मिलती है ..आपका तहे दिल आभारी हूँ सादर
आदरणीय अन्नपूरना जी ...हौसला अफजाई के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
चंद्रशेखरजी ..रचना पर आपके प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ सादर
आदरणीय शिज्जू जी ..बस यूं ही स्नेह बनाए रखें सादर
आदरणीया कुंती जी ..आप सब का आशीर्वाद बस यूं ही मिलता रहे इसी कामना के साथ सादर
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