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ग़ज़ल -इक वहीँ से मुकद्दर दिला दीजिए

एक पुरानी ग़ज़ल -

२१२२    १२२१   २२१२

बेकली मेरे दिल की मिटा दीजिए

ऐ मेरे चारागर कुछ दवा दीजिए

 

कुछ तो जज्बात मेरे समझिए जरा

कुछ तो मेरी वफ़ा का सिला दीजिए

 

दिल धुआं है मगर शोले जलते नहीं

इन शरारों को थोड़ी हवा दीजिए

 

बस तिज़ारत जहाँ पर नसीबों की हो

इक वहीँ से मुकद्दर दिला दीजिए

 

नींद आई थी जब एक अरसा  हुआ

उम्र भर के लिए अब सुला दीजिए

 

दम घुटा है बहुत सोने की कैद में

मेरी माटी से मुझको मिला दीजिए

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by sanju shabdita on April 3, 2014 at 12:47pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपका तहेदिल से शुक्रिया

Comment by sanju shabdita on April 3, 2014 at 12:46pm

आदरणीय केवल जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by sanju shabdita on April 3, 2014 at 12:45pm

आदरणीय गुमनाम जी आपका हार्दिक आभार

Comment by sanju shabdita on April 3, 2014 at 12:45pm

आदरणीया गीतिका जी ग़ज़ल के भाव आपको सार्वभौमिक लगे इसे मैं अपना सौभाग्य मानती हूँ .आपके मुखर अनुमोदन के लिए कोटि कोटि धन्यवाद /

Comment by sanju shabdita on April 3, 2014 at 12:40pm

आदरणीय श्याम जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by sanju shabdita on April 3, 2014 at 12:40pm

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया अन्नपूर्णा दी

Comment by sanju shabdita on April 3, 2014 at 12:36pm

बहुत शुक्रिया आदरणीय भुवन निस्तेज जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2014 at 8:50pm

आदरणीया संजू जी , बहुत खूब सूरत ग़ज़ल कही है , आपको तहे दिल से ढेरों बधाइयाँ ॥

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 2, 2014 at 8:38pm

बहुत सुन्दर गजल।  ढेरों दाद कुबूल करें। सादर,

Comment by gumnaam pithoragarhi on April 2, 2014 at 7:20pm

वाह  बहुत खूब ग़ज़ल कही है बधाई

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