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ग़ज़ल -इक वहीँ से मुकद्दर दिला दीजिए

एक पुरानी ग़ज़ल -

२१२२    १२२१   २२१२

बेकली मेरे दिल की मिटा दीजिए

ऐ मेरे चारागर कुछ दवा दीजिए

 

कुछ तो जज्बात मेरे समझिए जरा

कुछ तो मेरी वफ़ा का सिला दीजिए

 

दिल धुआं है मगर शोले जलते नहीं

इन शरारों को थोड़ी हवा दीजिए

 

बस तिज़ारत जहाँ पर नसीबों की हो

इक वहीँ से मुकद्दर दिला दीजिए

 

नींद आई थी जब एक अरसा  हुआ

उम्र भर के लिए अब सुला दीजिए

 

दम घुटा है बहुत सोने की कैद में

मेरी माटी से मुझको मिला दीजिए

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by वेदिका on April 2, 2014 at 5:49pm
दम घुटा है बहुत सोने की कैद में
मेरी माटी से मुझको मिला दीजिए

बहुत खूब ख्याल किया आपने .... बेहद दाद कुबुलिये प्रिय संजू जी। भले ही एक पुरानी गजल पेश हुयी है, मगर इसके सार्वभौमिक भावों को सलाम करती हूँ।
Comment by Shyam Narain Verma on April 2, 2014 at 4:49pm
बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!
Comment by annapurna bajpai on April 2, 2014 at 3:26pm

प्रिय संजू शब्दिता जी सुंदर गजल , बहुत खूब , दाद कुबूल कीजिये । सस्नेह 

Comment by भुवन निस्तेज on April 2, 2014 at 2:24pm

बस तिज़ारत जहाँ पर नसीबों का हो

इक वहीँ से मुकद्दर दिला दीजिए

Aadarniyaa, heart touching...

Congratulations for the creations...

Comment by sanju shabdita on April 2, 2014 at 9:43am

उत्साह बढ़ाने हेतु आपका बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय जीतेन्द्र 'गीत' जी

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 2, 2014 at 9:30am

बहुत सुंदर, भावनाओं से परिपूर्ण इस गजल पर आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीया संजू जी, यह शेर बहुत पसंदीदा हुए

कुछ तो जज्बात मेरे समझिए जरा

कुछ तो मेरी वफ़ा का सिला दीजिए

नींद आई थी जब इक जमाना हुआ

उम्र भर के लिए अब सुला दीजिए

 

दम घुटा है बहुत सोने की कैद में

मेरी माटी से मुझको मिला दीजिए

 

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