चेतनाहीन
मैं
एक सपेरा हूँ , मदारी हूँ
कश्मीर से कन्या कुमारी , और –
गुजरात से अरुणाचल तक
दिल्ली
मेरी पिटारी है ।
बंद हैं इसमे काले विषधर साँप , बंदर
पर अफसोस –
ये गाँधीवादी नहीं
इनके आँख , कान और मुंह
सभी बंद हैं
क्यूँ कि ये अवसरवादी हैं ।
मैं गाँधी
एक सपेरा , मदारी !
खड़ा बजा रहा हूँ बीन
पर , अफसोस –
ये चेतनाहीन हो गए से लगते हैं ।
------- मौलिक एवं अप्रकाशित -------
Comment
आदरणीय ब्रह्मचारी भाई , वर्तमान पर बहुत लाजवाब रचना हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
वाह भाई साहब क्या मदारी का मदारीपन दिखलाए है....अवसरवादी इनका पेशा है अन्यथा वह भूखा मर जाएगा.
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ................ |
बहुत करारा व्यंग, पढ़कर मजा आ गया. हार्दिक बधाई आपको
कसी हुई भाषा शैली में आपकी यह व्यंग्य रचना बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है। हार्दिक बधाई आपको
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