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समय हमें क्या दिखा रहा है।
कहाँ ज़माना ये जा रहा है।
कोई बनाता है घर तो कोई,
बने हुए को ढहा रहा है।
बुझाए लाखों के दीप जिसने,
वो रोशनी में नहा रहा है।
गुलों को माली ही बेदखल कर,
चमन में काँटे उगा रहा है।
कुचलता आया जहाँ उसी को,
जो फूल खुशबू लुटा रहा है।
जो बीज बोकर उगाता रोटी,
वो भूख से बिलबिला रहा है।
हो बाढ़ या सूखा दीन का तो,
सदा ही खाली घड़ा रहा है।
खफा हैं क्यों काफिये बहर से,
गज़ल को ये गम सता रहा है।
ये “कल्पना” रब का न्याय कैसा,
दुखों का ही दिल दुखा रहा है।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
वाह बेहतरीन ग़ज़ल .. बहुत बधाई...................... |
जो बीज बोकर उगाता रोटी,
वो भूख से बिलबिला रहा है।
आदरणीया , बधाई अच्छी गज़ल की ।
बुझाए लाखों के दीप जिसने,
वो रोशनी में नहा रहा है।..............क्षमा चाहूँगा आदरणीया, मुझे गजल विधा का ज्ञान तो नही है पर यहाँ 'बुझाए लाखों हैं दीप जिसने' मुझे अच्छा लग रहा है.
गुलों को माली ही बेदखल कर,
चमन में काँटे उगा रहा है।..................बड़ी विवशता है , कोई क्या करे.
जो बीज बोकर उगाता रोटी,
वो भूख से बिलबिला रहा है।..............अथाह गहन, अंतर को झंझोंड देता हुआ.
बहुत ही सुंदर गजल, हर एक शेर मन को छू जाता है आदरणीया कल्पना जी. दिली बधाई कुबूल कीजियेगा
एक अच्छी ग़ज़ल कही है महोदया ..
हो बाढ़ या सूखा दीन का तो,
सदा ही खाली घड़ा रहा है।......क्या कहने ! बधाई स्वीकार करें ! नमन सहित
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