फल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, अगरबत्ती, कर्पूर
मिठाई, पूजा, आरती, दक्षिणा
चुपचाप ये सबकुछ ग्रहण कर लेगा
अगर देना चाहोगे जानवरों या इंसानों की बलि
उसे भी ये चुपचाप स्वीकार कर लेगा
पर जब माँ बनते हुए बिगड़ जाएगी तुम्हारी बहू या बेटी की हालत
तब उसे छोड़कर किसी बड़े अस्पताल में किसी बड़े आदमी की
बहू या बेटी के सिरहाने डाक्टरों की फ़ौज बनकर खडा हो जाएगा
जब किसी झूठे केस में गिरफ़्तार कर लिया जाएगा तुम्हारा बेटा
तब उसे छोड़कर किसी अमीर बाप के बिगड़े बेटे को बचाने के लिए
वकीलों की फ़ौज बनकर खड़ा हो जाएगा
जब तुम स्वर्ग जाने की आशा में
किसी तरह अपनी जिन्दगी के अंतिम दिन काट रहे होगे
तब ये किसी अमीर बूढ़े के लिए
धरती पर स्वर्ग का इंतजाम कर रहा होगा
ये तुम्हारा ईश्वर नहीं है
तुम्हारा ईश्वर तो कब का मर चुका है
अब जो दुनिया चला रहा है
वो ईश्वर पूँजीवादी है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया बृजेश जी।
वाह! बहुत सुन्दर! वर्तमान देश काल की विसंगतियों को बहुत अच्छे से उधेड़ा है आपने इस कविता के माध्यम से.
//अब जो दुनिया चला रहा है
वो ईश्वर पूँजीवादी है//.........ये पंक्तियाँ सीधे चोट करती हैं.
इस रचना के लिए आपको साधुवाद और हार्दिक बधाई!
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ सौरभ जी, स्नेह बना रहे।
धनपशुता की वैचारिक वीभत्सता को जिस तीखेपन से दुत्कारा गया है और जिस समाज पर लानतें भेजी गई हैं वह इस कविता का हेतु है. वह समाज अवश्य ही बहुसंख्यक की मान्यताओं और ऐसों के जीवन की कठिनाइयों का पक्षधर नहीं है, लेकिन किस तरह से हर तरह के समाज को प्रभावित करता है, यह अबूझ नहीं है.
बधाई स्वीकार करें.. आदरणीय
बहुत बहुत शुक्रिया Prachi जी
समाज के दो अलग वर्गों में भेद दिखाती परिस्थितियाँ..एक के लिए सुकून सुगम और दुसरे केलिए दुर्गम... ऐसे में ईश्वर की आमजन में व्याप्त अवधारणा को पूरे आक्रोश के साथ आपने शब्दबद्ध किया है..
शुभकामनाएं
अपने विचारों से अवगत करवाने के लिए धन्यवाद विजय मिश्र जी। कहते हैं कि ईश्वर दयानिधान, गरीबनवाज़, दीन दुखियों का है लेकिन आजकल सबकुछ इसके बिल्कुल विपरीत हो रहा है। ये कविता ईश्वर की इस अवधारणा पर व्यंग्य है। धनहीन समाज पहले से ही कुंठित है तथा दिन ब दिन और ज्यादा कुंठित होता जा रहा है। ये कविता केवल उस बढ़ती हुई कुंठा को सामने ला रही है आखिर साहित्य समाज का आईना है।
मैं आपके विचारों से सहमत नहीं हूँ।
बहुत बहुत शुक्रिया जितेन्द्र 'गीत' जी
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