2122 2122 212
आँसुओं को यूँ मिलाकर नीर में
ज्यों दवा हो पी रहा हूँ पीर में
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हाथ की रेखा मिटाकर चल दिया
क्या लिखा है क्या कहूँ तकदीर में
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कौन डरता जाँ गवाने के लिए
रख जहर जितना हो रखना तीर में
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हर तरफ उसके दुशासन डर गया
मैं न था कान्हा जो बधता चीर में
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माँ के हाथों सूखी रोटी का मजा
आ न पाया यार तेरी खीर में
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शायरी कहता रहा उलझन भरी
शब्द बध पाये नहीं जंजीर में
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रचना मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है , आपको दिली बधाइयाँ !!
हाथ की रेखा मिटाकर चल दिया
क्या लिखा है क्या कहूँ तकदीर में -------- ढेरों दाद इस शे र के लिये !
माँ के हाथों सूखी रोटी का मजा
आ न पाया यार तेरी खीर में
**......बहुत सुंदर.
आदरणीय लक्ष्मण साहेब
बहुत बढ़िया..अच्छी ग़ज़ल..मुबारकबाद
हाथ की रेखा मिटाकर चल दिया
क्या लिखा है क्या कहूँ तकदीर में
शायरी कहता रहा उलझन भरी
शब्द बध पाये नहीं जंजीर में
कौन डरता जाँ गवाने के लिए
रख जहर जितना हो रखना तीर में...............शायद इंसान जब सब कुछ खो देता है, तो किसी से नही डरता
माँ के हाथों सूखी रोटी का मजा
आ न पाया यार तेरी खीर में.............वाह! यह सच हर कोई समझ सके
वास्तविक सच्चाई को गजल के माध्यम से बहुत सुन्दरता से प्रस्तुत किया आपने आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, हार्दिक बधाई आपको
कौन डरता जाँ गवाने के लिए
रख जहर जितना हो रखना तीर में
माँ के हाथों सूखी रोटी का मजा
आ न पाया यार तेरी खीर में
शायरी कहता रहा उलझन भरी
शब्द बध पाये नहीं जंजीर में
हर शेर स्वयं में एक उपलब्धि है, पढ़कर अनुभूतियाँ झंकृत हो गयीं, आ. लक्ष्मण धमी मुसाफिर साहब बधाई स्वीकार करें,
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