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आज फिर से बवाल लेते हैं
प्रश्न कोई उछाल लेते हैं
प्यास का हल कोई हमीं करलें
वो समझने में साल लेते हैं
उनको आँखों में सिर्फ अश्क़ मिले
वो जो सब का मलाल लेते हैं
तेग वो ही चलायें, खुश रह लें
आदतन, हम जो ढाल लेते हैं
आज कश्मीर पर हो हल कोई
आओ सिक्का उछाल लेते हैं
भूख, उनके खड़ी रही दर पर
रिज़्क जो- जो हलाल लेते हैं
फिर उजाला मिलेगा सूरज से
बंट रहा है ख़याल , लेते हैं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
एक वैचारिक ग़ज़ल पर बार-बार साधु-साधु कर रहा हूँ. मतले से उठी आवाज़ लगातार सधती गयी है.
दिल से बधाई, आदरणीय .. .
लेकिन कश्मीर वालेे शेर में क्या कुछ कह रहे हैं, आदरणीय ???
मैं पूरे होशो-हवास में नम्रता के साथ पुरजोर विरोध दर्ज़ कराता हूँ. क्योंकि मुझे भान है कि आप जो कुछ कह रहे हैं उसका अर्थ आपको मालूम है. क्या आदरणीय आपकी ऐसी इच्छा है ?
किन्तु, ऐसा होना उस Plebiscite से भी अतुकान्त है जिसे भारतीय संविधान भी कड़े शब्दों में नकारता है. फिर मनमानेपन को सिक्का उछालने जैसे बिम्ब से बाँधा गया है ? यह भारतीय संविधान की मूलभावना और गरिमा के नितांत विरुद्ध है. इस तरह के किसी मंतव्य को इस भूभाग पर कोई स्थान नहीं है.
सादर
आदरणीय बड़े भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
छोटे भाई गिरिराज
वर्तमान हालात और सियासत पर अच्छा व्यंग्य , हार्दिक बधाई
आदरणीय अरुण अनंत भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार !!
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार !!
आदरणीय शिज्जू भाई , आपकी सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया !!
आदरणीया महेश्वरी जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभार ॥
खूबसूरत अश’आर हुए हैं आदरणीय गिरिराज जी, दिली दाद कुबूल करें।
वाह आदरणीय गिरिराज बहुत ही उम्दा ग़ज़ल क्या बात है एक एक अशआर बहुत ही खूबसूरत बन पड़े हैं ढेरों दिली दाद कुबूल फरमाएं.
वाह बेहतरीन आदरणीय गिरिराज सर बहुत बहुत बधाई पूरी ग़ज़ल रवां है
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