बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
महीनों तक तुम्हारे प्यार में इसको पकाया है
तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है
अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है
तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है
किसी को साथ रखने भर से वो अपना नहीं होता
जो मेरे दिल में रहता है हमेशा, वो पराया है
तेरी नज़रों से मैं कुछ भी छुपा सकता नहीं हमदम
बदन से रूह तक तेरे लिए सबकुछ नुमाया है
कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था
बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत खूब आदरणीय
महीनों तक तुम्हारे प्यार में इसको पकाया है
तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है
अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है
तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है
कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था
बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है
इस बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई....
कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था
बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है...... बहुत खूब कहा आदरणीय धर्मेंद्र जी मगर यादों के दीप को जीतना बुझाने की कोशिश करेंगे, उसकी लौ उतना ही भड़केगी।
अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है
तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है....बहुत खूब धर्मेन्द्र भाई , बधाई कबूल करें .
आदरणीय धर्मेन्द्र जी
क्या बात है..इस खूबसूरत ग़ज़ल पर मेरी तरफ से हज़ारों दाद हाजिर है..
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