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साधुओं के भेष में शैतान कितने
लूटते विश्वास के मैदान कितने
फितरतें इनकी विषैली अजगरों सी
डस चुके हैं जीस्त में इंसान कितने
इस सियासी दौर में गुलज़ार हैं सब
रास्ते जो थे कभी वीरान कितने
हाथ में इतनी मिठाई देख कर वो
भुखमरी से जूझते हैरान कितने
छीनना ही था हमेशा काम जिनका
आज देते जा रहे हैं दान कितने
हड्डियाँ फेंकी उन्होंने सामने जो
डगमगा जाते यहाँ ईमान कितने
धर्म की दीवार जिनको बाँटती हैं
आज आँगन वो यहाँ सुनसान कितने
क्या भरोसा हम करें उस मौलवी का
खुद गली में बिक रहे भगवान् कितने
आम जनता आज फिर ये देखती है
झूठे वादे फिर चढ़े परवान कितने
‘राज’ बगुले चल रहे हंसो की माफ़िक
बन रहे हैं शक्ल से अनजान कितने
__________
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ० गिरिराज जी, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना से उत्साहित हूँ आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ हार्दिक आभार आपका.
आदरणीया राजेश जी , पूरी गज़ल बहुत सुन्दर बन पड़ी है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें !!
‘राज’ बगुले चल रहे हंसो की माफ़िक
बन रहे हैं शक्ल से अनजान कितने - -- बहुत खूब , बधाइयाँ !!
मुकेश वर्मा 'चिराग'जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से आभार आपका.
आदरणीय राजेश कुमारी जी
बहुत बढ़िया.. बहुत अच्छी लगी मुझे आपकी ये पेशकश. मुबारक हो
‘राज’ बगुले चल रहे हंसो की माफ़िक
बन रहे हैं शक्ल से अनजान कितने
जितेन्द्र गीत भैया जी, ग़ज़ल के शेर आपको प्रभावित किये,मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभार आपका .
आ० उमेश कटारा जी आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से आभार आपका.
साधुओं के भेष में शैतान कितने
लूटते विश्वास के मैदान कितने..........किस पर विश्वास करें?
हड्डियाँ फेंकी उन्होंने सामने जो
डगमगा जाते यहाँ ईमान कितने..........हर तरफ देखने को मिल रहा है
आम जनता आज फिर ये देखती है
झूठे वादे फिर चढ़े परवान कितने ..........कटु सच्चाई
बहुत सुंदर सामयिक गजल कही आपने आदरणीया राजेश दीदी, दिली बधाई स्वीकार कीजिये
वाहहहहहहह उम्दा गजल कही है आपने सादर नमन
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