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मत कहो तुम है खिलाफत - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    2122

**


दर्द  दिल  का  जो  बढ़ा  दे, बोलिए  मरहम  कहाँ है
रौशनी  के दौर में  अब तम  के  जैसा  तम  कहाँ है

**
कर  रहे  तुम  रोज  दावे   चीज  अद्भुत   है  बनाई
नफरतें  पर  जो  मिटा दे  लैब में  वो  बम  कहाँ है

**
जै जवानों, जै किसानों,  की सदा  में थी कशिश जो
अब  सियासत  की  कहन  में यार वैसा दम कहाँ है

**
मत कहो तुम है खिलाफत धार के विपरीत चलना
चाहते  बस  जानना  हम  धार  का  उद्गम कहाँ है

**
दो  दिनों  की आशिकी  में  चाहतें  होती  तनों  की
अब जवानी  में तनिक  भी शेष  वो संयम कहाँ है

**
प्यार   होता   तो   जुदाई  भी  हमें  तो  रंज  देती
पर खुशी का पाश दे जो, दिल में ऐसा गम कहाँ है

**
सिर्फ  मेरी  राह   में  ही  रोकते  हैं  घन  उजाला
आसमाँ में तो ‘मुसाफिर’ चाँदनी भी कम कहाँ है

**
रचना मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 25, 2014 at 8:49pm

कर  रहे  तुम  रोज  दावे   चीज  अद्भुत   है  बनाई
नफरतें  पर  जो  मिटा दे  लैब में  वो  बम  कहाँ है---बहुत उम्दा  शेर ..क्या बात है 

बहुत सुन्दर ग़ज़ल ...दिली दाद कबूलिये 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 25, 2014 at 6:27pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , लाजवाब ग़ज़ल कही है , मेरी दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ॥

मत कहो तुम है खिलाफत धार के विपरीत चलना
चाहते  बस  जानना  हम  धार  का  उद्गम कहाँ है
दो  दिनों  की आशिकी  में  चाहतें  होती  तनों  की
अब जवानी  में तनिक  भी शेष  वो संयम कहाँ है --- बहुत खूब भाई , अनेकों बधाइयाँ ॥

Comment by coontee mukerji on April 25, 2014 at 4:00pm

सिर्फ  मेरी  राह   में  ही  रोकते  हैं  घन  उजाला
आसमाँ में तो ‘मुसाफिर’ चाँदनी भी कम कहाँ है...........बहुत खूब.

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on April 25, 2014 at 12:46pm

आदरणीय लक्ष्मण जी

बहुत बढ़िया

जै जवानों, जै किसानों,  की सदा  में थी कशिश जो
अब  सियासत  की  कहन  में यार वैसा दम कहाँ है

कृपया ध्यान दे...

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